Monday, May 3, 2010

गंगा


गंगा



‘‘कहाँ चली गयी थी तू, मेरे को बताया भी नहीं, मेरे से मिल कर क्यूँ नहीं गई, मुझे अच्छा नहीं लगा।’’ भरी दोपहरी में ऐसे ही अनगिनत सवालों कि बौछार में भींग रही थी मैं और इस बरसने वाली बदली का नाम था ‘गंगा’।
अल्मोड़ा बाजार के सबसे व्यस्त चौराहों में से एक, शिब्बन पान वालों की दुकान के सामने से मैं गुजर रही थी कि अचानक गंगा मिल गयी। हाथ में एक बड़ा सा बैग और इस उमस भरी गर्मी में भी स्वेटर पहने, छाता पकड़े अपनी मूल पहाड़ी छवि के साथ उसने मुझे नमस्ते का इशारा भर किया और मेरे इतने नजदीक आ गयी कि बस गले लगने की ही देर थी। लगभग दो साल बाद वो मुझे मिली थी। उसे देख कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, मगर अपनी टीचरों वाली अकड़ और शहरी दिखावे में जकड़ी मैं अपनी खुशी का इज़हार नहीं कर पा रही थी। मैं बस इतना ही पूछ पायी, ‘‘कैसी हो गंगा’’ और वो न जाने कब से भरी बैठी थी कि मैं मिल जाऊँ और वो मुझ पर बरस पड़े। आप और तुम जैसे औपचारिक शब्दों से परे वो मुझ से इस तरह बात कर रही थी कि मानो मैं उसकी बचपन की सहेली हूँ, जो उसे बिन बताये ही ससुराल चली गयी। अभी यह मिलन चल ही रहा था कि गंगा कि आमा ने आवाज लगाई, ‘‘जल्दी चल नहीं तो जीप नहीं मिलेगी।’’ और वो सवालों का बचा हुआ गुबार मन में समेटे चली गयी। ‘‘अब तू गाँव कब आएगी,’’ उसने जाते-जाते पूछा और मैं बस मुस्करा दी। मेरे लिए इस उमस भरे माहौल में ये दो चार पल की मुलाकात एक ठण्डे, ताजे हवा के झोंके जैसी थी, जिसने वक्त की किताब के दो साल पुराने पन्ने पलट दिये थे।
बुराँश, चीड़ और बाँज के जंगलों के बीच अल्मोड़ा से लगभग 35 किमी. दूरी पर एक छोटा सा पहाड़ी गाँव है ‘सल्ला’, पहली बार जिसका नाम सुनकर मुझे बचपन के खेल सल्ला-कुट्टी की याद आ गयी थी। यहाँ से हिमालय की बर्फीली चोटियाँ इतनी करीब लगती हैं, मानो छूते ही हथेली पर फिसल जाएँगी। मगर मुझे वो हमेशा सौफ्टी जैसी लगती थी। मन करता था कि ज़बान निकालूँ और जरा सी चाट लूँ।
खैर इस कुदरत के नजारों से निकल कर बात करते है गंगा की। मेरी नई-नई नौकरी और गाँव का पहला अनुभव था। मन में जोश भी कुछ ऐसा था, जैसे ‘नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है’ वाली कहावत और इसी कहावत को सच करने की ठानी हमारी सी.आर. सी. समन्वयक ने, जिसका रौब-दाब अपने लिये किसी मिनिस्टर से कम न था और मेरे जैसे टीचर काफी हद तक उनके दिये गए ए.बी.सी.डी. आदि ग्रेड की कृपा दृष्टि पर ही आश्रित थे। एक दिन वो स्कूल आई और मेरी तारीफों की पुल बाँधते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे लिये एक चैलेंज है।’’ चैलेंज शब्द सुन कर हम जोश से भर गये, जैसे सूखे पहलवान को कोई रुस्तम समझ ले। वो बोली, मेरे पूरे संकुल में एक भी ड्रॉप आउट बच्चा नहीं है। बस एक लड़की है 13 साल की गंगा। गंगा स्कूल नहीं आती। हमारे अधिकारी सभी समझा चुके हैं, लेकिन वो विद्यालय आने को तैयार नहीं है। जब भी उसे स्कूल आने को कहो तो वो दराँती लेकर जंगल में भाग जाती है। उसका कहना है कि अगर उसे स्कूल भेजा तो वो अपनी जान दे देगी। अगर तुम उसे स्कूल ले आई तो ये एक बड़ी उपलब्धि होगी।
वो तो चैलेंज का डमरू थमा कर चली गयी और इस डमरू की डम-डम मेरे दिमाग में गूँजने लगी। मैं भी बचपन में अक्सर सोचती थी कि मेरे स्कूल की बिल्डिंग गिर जाए और स्कूल जाने से मुक्ति मिले। न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी और आज गंगा के मन में भी स्कूल के लिए वही तिरस्कार दिखाई दे रहा है। न जाने कैसे हमारे स्कूल जेल में बदल गये, जिससे बच्चों को डर लगने लगा।
खैर साहब, शाम को मैं गंगा के घर गई। मेरे साथ मेरी प्रधानाध्यापिका भी थीं। घर स्कूल से कुछ दूर था। उसके घर के आगे गाय, बकरियाँ बँधी थीं। पटालों की छत, मिट्टी से लीपी गई दीवारें। घर के चारों तरफ सुन्दर खेत, जिन्हें देख कर लगा कि इस परिवार को घर से ज्यादा खेत प्यारे हैं। गंगा अक्सर अध्यापिका को देखकर छुप जाती थी, मगर वो मुझे पहचान नहीं पाई, शायद इसीलिए अपनी सीढ़ी पर खड़ी रही। प्रधानाध्यापिका पड़ोसी से बात करने के लिए रुक गईं थी। गंगा कद-काठी में मेरे बराबर या शायद मुझसे लम्बी थी। वो मुझे काफी बड़ी लग रही थी। मैंने गंगा से कहा कि मैं स्कूल की नई मैडम हूँ। मुझे स्कूल में कुछ क्यारियाँ बनानी हैं। क्या तुम स्कूल आकर मेरी कुछ मदद कर दोगी ? वो बस टुकुर-टुकुर मुझे देखती रही एकदम खामोश। मैं वापस आ गई। मेरा सारा जोश काफूर हो गया था। मैंने खुद को यह कह कर समझा लिया कि जब बड़े अधिकारी कुछ नहीं कर पाए तो मैं किस खेत की मूली हूँ।
अगले दिन जैसे ही बस से उतर कर मैं स्कूल के गेट पर पहुँची तो देखा गंगा अपने छोटे भाई, जो हमारे यहाँ आँगनबाड़ी में पढ़ता था, के साथ खड़ी मुस्करा रही है। उसके हाथों में फूल थे। उसने मुझे नमस्ते किया और बोली-‘‘मैं आ गई मैडम।’’
मैं गंगा को हमेशा अपने साथ रखती थी। वो क्यारी बनाने में मेरी मदद करने लगी और कभी-कभी कक्षा कक्ष को सजाने व लाइब्रेरी को ठीक करने में मेरा हाथ बँटाती थी। धीरे-धीरे स्कूल की कुछ लड़कियों से उसकी दोस्ती हो गई और वो कभी-कभी कक्षा में भी उनके साथ बैठने लगी। वो बच्चों के साथ खेलती नहीं थी और न ही उसे स्कूल में खाना खाना पसंद था।
मैंने एक दिन गंगा को एक किताब पढ़ने को कहा। मगर ये देखकर मैं हैरान हो गई कि गंगा अक्षर तक नहीं पहचान पा रही थी और न ही उसे गिनती आती थी। अंग्रेजी तो दूर की बात थी, कक्षा पाँच में पढ़ने वाली गंगा सच्चे शब्दों में निरक्षर थी। मैंने गंगा को कक्षा से अलग अपने पास बैठाकर पढ़ाना शुरू किया और शब्दों व अंकों की पहचान करानी शुरू की। गंगा का मन भी पढ़ाई में लगने लगा था। मगर वो अन्य बच्चों के साथ पढ़ना पसंद नहीं करती थी। स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया और गंगा ने सारी तैयारियों में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। बच्चों को तैयार करवाया। उसने खुद भी साड़ी पिछौड़ा पहना था। मगर उसने बच्चों के साथ नाच नहीं किया। वो तो झोड़े में मगन थी। बीच में हुड़का बजाने वाला ताल दे रहा था और गोल घेरे में गाँव की महिलाएँ पिछौड़ा पहने गा रही थीं। और उन्हीं के साथ थिरक रही थी हमारी गंगा।
मैंने सभी मेहमानों से गंगा का परिचय करवाया और बताया कि किस तरह गंगा सालों बाद स्कूल लौटी। सभी ने गंगा की तारीफ की। पर कार्यक्रम का परदा गिरते ही एक दूसरे राज का पर्दा उठ गया, जब सी.आर. सी. समन्वयक ने डाँट लगाते हुए बताया कि मैंने गंगा के बारे में सबको सच बताकर अनचाहे ही उन्हें मुसीबत में डाल दिया है। दरअसल सी.आर.सी. केन्द्र के स्कूल में गंगा नाम विधिवत लिखा हुआ था और वो कक्षा पाँच की नियमित छात्रा थी। सालों से कागजों का पेट ऐसे ही भरा जा रहा था। जबकि वास्तव में सच ये था कि गंगा लम्बे समय से स्कूल ही नहीं गई थी।
दोष सी.आर.सी. का भी नहीं था। ऊपर से छात्र संख्या को लेकर इतना दबाव होता है कि व्यक्ति कुछ भी करने को नहीं झिझकता। हर कदम पर एक स्कूल और गाँव में 15-20 बच्चे। आखिर छात्र संख्या को लेकर शिक्षक क्या करे ? खैर ये बुद्धिमानों के बनाये नियम हैं। हमारी क्या मजाल जो अंगुली उठाएँ ? सरकार कहती है जनसंख्या कम करो और हमारे अधिकारी कहते हैं संख्या बढ़ाओ। अब इस समस्या से तो भगवान ही निपटे।
गंगा हर काम में बहुत होशियार थी। वो चित्र भी बड़े सुन्दर बनाती थी। खेती-बाड़ी की भी अच्छी जानकारी रखती थी। बस उसे पढ़ने-लिखने में थोड़ी दिक्कत थी। और इसी वजह से शिक्षकों के स्नेह, विशेष ध्यान और उपेक्षा का शिकार होकर गंगा आज ड्रॉप आऊट बच्चों की फेहरिसत में पहुँच गई थी। कुछ ही समय बाद मेरा ट्रांस्फर हो गया। गंगा मेरे जाने के बाद हमेशा के लिए स्कूल से वापस लौट गई पर कई सवाल आज तक मेरे ज़हन में घूम रहे हैं। आखिर पाँच वर्षों तक स्कूल जाकर भी गंगा निरक्षर क्यों है? न जाने कितनी गंगाएँ मात्र कागजों पर बह रही हैं और हम दुनिया को अपनी शानदार सफलता के पुलिन्दे दिखा रहे हैं। नन्हें ख्वाबों के मुर्दाघरों में बदल चुके इन स्कूलों में न जाने कितनी कल्पनाएँ रोज दम तोड़ रही हैं। कितने ख्वाब रोज आत्महत्याएँ कर रहे हैं। क्या यही वो जगह है जिनके लिए कैफी आजमी कह गए थे-
हुआ सबेरा फिर अदब सेआसमान अपना सर झुका रहा हैकि बच्चा स्कूल जा रहा है।

2 comments:

Unknown said...

kya bat cha dada bahut khoob cha lekhew tuml yaar U r realy hero of gadwal
Thax for this one

Unknown said...

thax yaar bahut khoob cha lekhew tuml badi khusi hui pad ker