Monday, August 30, 2010

भारी वष्रा से छलकने लगा टिहरी बांध

देहरादून 21 अगस्त.भाषा. उत्तराखण्ड में हो रही भारी वष्रा के चलते नदिायों का जलस्तर बढ़ने के कारण टिहरी बांध लबालब भरने लगा है । बांध ने अब तक का सबसे अधिक बिजली उत्पादन का रिकार्ड भी कायम कर लिया है ।

टिहरी जल विद्युत विकास निगम : टीएचडीसी : के आला अधिकारी के अनुसार एशिया का यह सबसे बड़े कृत्रिम जलाशय का जल स्तर पर्याप्त पानी आने से 816.5 मीटर से उपर चला गया है । और इसकी 820 मीटर तक भरे जाने की सीमा जल्दी ही आने वाली है ।

अधिकारी के अनुसार राज्य सरकार से इसकी अधिकतम जल भराव क्षमता 830 मीटर तक की अनुमति ने मिलने क कारण बांध से प्रतदिन 200 क्यूमेक्स पानी छोड़ा जा रहा है । गंगा में इतना अतिरिक्त पानी छोड़ने से मैदानी इलाकों मे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है ।

टीएचडीसी के उक्त प्रवक्ता के अनुसार इन दिनों बांध को लगभग 600 क्यूमेक्स पानी भागीरथी से तथा 400 क्यूमेक्स भिलंगना से मिल रहा है । काफी पानी मिल जाने से इन दिनों चारों टरबाइनें चलाई जा रही हैं।

इससे स्थापित क्षमता 1000 मेगावाट से अधिक 1060 मेगावाट का बिजली उत्पादन हो रहा है । गत दिन चारों मशीनों से 24.95 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन हुआ ् जो कि एक रिकार्ड है । चारों टरबाइनें चलाने से 500 क्यूमेक्स पानी नदी में छूट रहा है तथा इसके अलावा 200 क्यूमेक्स पानी व्यर्थ ही छोड़ना पड़ रहा है ।

Wednesday, August 25, 2010

लक्ष्मी महायज्ञ आज से, कलश यात्रा निकली

बखरी (बेगूसराय) मंगलवार से बखरी में पहली बार आयोजित हो रहे श्री महालक्ष्मी महायज्ञ को लेकर सोमवार को 108 सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा भव्य कलश यात्रा निकाली गयी। कलश यात्रा आयोजक श्री ऊं श्याम हनुमान मंदिर से निकलकर सम्पूर्ण बाजार की सड़कों से गुजर का यज्ञ स्थल पर पहुंची। यात्रा का नेतृत्व देवराहा बाबा दिव्य फाउंडेशन वृन्दावन के छोटे सरकार, यज्ञ के संयोजक नन्दलाल खेतान, कैलाश शर्मा, कार्यालय प्रमुख भोला चौधरी आदि कर रहे थे। इस मौके से कई आकर्षक झांकियां भी निकाली गयी। बताते चलें कि देवराहा बाबा दिव्य फाउंडेशन के द्वारा सम्पूर्ण भारत में पांच स्थानों पर महालक्ष्मी महायज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। जिसकी शुरूआत बिहार में पहली बार बखरी से की जा रही है।

Wednesday, August 18, 2010

बर्बाद हो रही खेती

farming‘भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर आश्रित है,’’ यह वाक्य हम कक्षा दो से पढ़ते आये हैं। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद भी जनता के खेवनहारों ने कृषि की इस अमूल्य निधि की तरफ आँख उठाकर देखने की जरूरत नहीं समझी। जिस प्रकार पहाड़ों की सोना उगलने वाली धरती को उपेक्षित कर बंजर में तब्दील किया जा रहा है, उससे तो लगता है कि एक दिन सिर्फ चट्टानें रह जाने के कारण पहाड़ों को ‘हाड़’ ही कहा जाने लगेगा।

मुनस्यारी में तीस-पैंतीस साल पहले तक 80 प्रतिशत लोग कृषि-बागवानी से जीवन निर्वाह करते थे। आलू की खेती सर्वाधिक रूप बर्नियागाँव में होती थी। भले ही आज भी यहाँ पर उत्पादन में कुछ कमी अवश्य आयी है, मगर यह गाँव मूलतः आलू के कारण ही जाना जाता है। ‘बर्नियागाँव का आलू और बिहार का लालू’ कह कर लोग हँसी-ठिठोली भी करते हैं। इसी तरह हरी सब्जियों के लिए हरकोट गाँव की अपनी ख्याति है। हरकोट की चोती (मूली) का जो स्वाद और आकार होता है, उसका मुकाबला शायद ही कहीं हो सके। राजमा की नकदी फसल का उत्पादन क्वीरीजिमिया, प्यांगती, बोना, तोमिक, गोरीपार, ढीलम आदि दूरस्थ गाँवों में बहुतायत से होता है, लेकिन उचित मूल्य न मिल पाने से काश्तकारों में नाराजी है, जिससे इसके उत्पादन में भी गिरावट आयी है।

कुछ ही जगहों पर, और पुराने ख्यालातों के लोग ही जमीनी मुहब्बत के कारण कृषि-बागवानी में लगाव लगाये हुए हैं। उनके बाद शायद ये बगीचे भी सूख जायें। करोड़ो की जमीन-जायदाद की बात होती तो दसों वारिस खड़े हो जाते, लेकिन इन सुन्दर बाग-उपवनों के लिए उत्तराधिकारी ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। अब शायद हर किसी को तत्काल फल चाहिए, अखरोट की तरह 18 वर्ष के इन्तजार का धैर्य किसी को नहीं। उद्यमी राजेन्द्र सिंह कोरंगा बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब मुनस्यारी के शास्त्री चौक में लोग 10-12 किमी. दूर बसन्तकोट, बीसा, दुम्मर, कव्वाधार, सेविला से पैदल चलकर केला, नारंगी, माल्टा, आड़ू, खुबानी, पुलम, नाशपाती, गन्ना आदि डोके में बोक कर दिन भर हर मौसम में यहाँ पर बिक्री कर अपने व अपने परिवार के लिए चाय, बीड़ी-तम्बाकू का खर्चा निकाल लेते थे। मदकोट के एक व्यक्ति ने तो नारंगी से इतना कमाया कि उसी के बलबूते एक मैक्स गाड़ी खरीद ली है और अब रोजाना पिथौरागढ़ से सवारियों को ढोने का अच्छा व्यवसाय चला रहा है, भले ही अब वह नारंगी बेचना भूल गया हो।

कृषि उद्यमियों की शिकायत है कि शासन और प्रशासन हमारी तरफ भूल कर भी नहीं देखते। न वन विभाग और न ही उद्यान विभाग उन्हें कोई प्रोत्साहन देते हैं। उद्यान विभाग से उन्हें कभी भी एक उन्नत प्रजाति का पौधा तक नहीं मिला। वन विभाग आज तक एक बन्दर को भगा पाने में भी सफल नही हो पाया। फसल लहलहाने से पूर्व से पकने तक इन वानरों का आतंक फैला रहता है। कभी-कभार वे छोटे बच्चों को चोट भी पहुँचा देते हैं। मुनस्यारी में मक्के की खेती में भी काफी गिरावट आयी है। भूमि की सर्वाधिक उर्वरा शाक्ति बढ़ाने वाली यह फसल आज सिर्फ छोटे से जमीन में सिमट कर रह गयी है। दूरस्थ गाँवों दूनामानी, आलम, दारमा, उच्छैती, वल्थी, जोशा में ही इसे आटे के रूप में बनाये जाने के लिए उत्पादन किया जा रहा है। जंगल जाकर निंगाल, जिससे डोका, तेता, डाला, राब्यों, म्वाल आदि का निर्माण किया जाता था, लाना भी आज नगण्य रह गया है। उद्यमी काश्तकार धरमु राम, जो पिछले 35 वर्षों से यह कार्य कर रहे हैं, बताते हैं कि कभी सरकार ने उन्हंे एक पैसे की सहायता तक नहीं दी। इसके बावजूद अपने पाँच बच्चों में से एक को वे यह शिल्पकला सिखाने की दिली तमन्ना रखते हैं। उन्हें आशा है कि उनका जगदीश उनकी इस पूँजी को अवश्य बचाये रखेगा। राजकीय इण्टर कालेज मुनस्यारी में दो दशक पूर्व मौन पालन की कक्षा चलती थी लेकिन कृषि मास्साब जितेन्द्र सिसौदिया के तबादले के बाद से यह कक्षा समाप्त हो गयी है। कुल मिलाकर राज्य गठन के बाद कृषि-बागवानी में गिरावट आयी है और राज्य सरकार इसके लिये पूरी तरह दोषी है।

Sunday, August 15, 2010

पौड़ी: आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिये सक्षम हैं कुमाँऊनी, गढ़वाली भाषा

साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित पौड़ी के संस्कृति भवन प्रेक्षागृह में सम्पन्न दो दिवसीय गढ़वाली भाषा सम्मेलन में यह निष्कर्ष उभर कर आया कि इन्डो-आर्यन के समय से चली आ रही गढ़वाली आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिये एकदम सक्षम भाषा है। यह बात साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष सतेन्द्रसिंह नूर ने अपने अध्यक्षीय उदबोधन में भी कही। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सांसद सतपाल महाराज ने कहा कि गढ़वाली को राजभाषा बनाने के लिये वे हरसंभव प्रयास करेंगे। इसके लिये आम सहमति बनने के लिये भी प्रयास किया जायेगा। विशिष्ट अतिथि भारतीय कविता विश्वकोश के मुख्य संपादक कपिल कपूर ने कहा कि यदि भाषा जीवित है तो संस्कृति व समाज जीवंत रहता है। गढ़वाली व कुमाउनी भाषायें बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से भारत में 16वें व 17वें स्थान पर हैं, इसलिये ऐसी भाषाओं को 8वीं अनुसूची में होना चाहिये।

बीज भाषण में सुप्रसिद्ध गीतकार एवं गायक (नरेन्द्र सिंह नेगी )ने गढ़वाली बोली-भाषा के इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि नई पीढ़ी अब इससे दूर हो रही है। यह गढ़वाली समाज में स्वाभाविक रूप से ग्राह्य हो इसके लिये काम करना होगा। अपने स्वागत भाषण में साहित्य अकादमी के सचिव अग्रहार कृष्णमूर्ति ने कहा कि भारत में हजारों बोलियाँ व भाषायें हैं और हरेक आदमी दो से तीन भाषायें जानता है। बड़े लेखक भी कई-कई भाषाओं में लिखते रहे हैं। साहित्य अकादमी द्वारा पिछले 50 सालों में 22 भाषाओं में 4,000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं। इतनी भाषाओं में एक साथ प्रकाशन करने वाला दुनिया का यह अकेला संस्थान है। विभागाध्यक्ष लोककला एवं परफार्मिंग आर्ट्स केन्द्र के अध्यक्ष डॉ. डी.आर. पुरोहित ने आगन्तुकों का आभार प्रकट किया जो इसके उन्नयन में लगे हैं। कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव ने किया।

पहले सत्र के अध्यक्ष, भाषा विज्ञानी डॉ. अचलानन्द जखमोला ने गढ़वाल सभा के तत्वावधान में तीन चौथाई तक बन चुके गढ़वाली शब्दकोश की प्रगति के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि गढ़वाली में अनन्त शब्द हैं, अनेक पौराणिक शब्द हैं और अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें दूसरी भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमारा प्रयास है कि गढ़वाली की सभी शैलियों को इसमें प्रतिनिधित्व मिले। उन्होंने कहा कि कोष एक सन्दर्भ ग्रन्थ जैसा ही है। जर्मनी के हेडलबर्ग विश्वविद्यालय में गढ़वाली भाषा के शब्दों का वैज्ञानिकता पर अध्ययन कर रहे इन्डोलॉजी विभाग के आर.पी. भटट ने गढ़वाली की वर्णमाला से लेकर वाक्य विन्यास पर चर्चा करते हुए बताया कि आज हर 10 दिन में दुनिया में एक भाषा मर रही है और इस प्रकार 100 साल में 6 हजार भाषायें समाप्त हो जायेंगी। डॉ. डी. आर. पुरोहित ने गढ़वाली भाषा के चैनल की आवश्यकता बताई।

दूसरे सत्र में गढ़वाली लेखक सुदामा प्रसाद प्रेमी ने गढ़वाली लोकोक्तियों पर चर्चा की और इस विषय पर लम्बे समय से काम कर रहे शिक्षाधिकारी पुष्कर सिंह कण्डारी ने अपने द्वारा संग्रहीत की गई गढ़वाली की अनगिनत लोकोक्तियों का जिक्र किया। वीरेन्द्र पँवार ने गढ़वाली को जीवित रखने के लिये इसे रोजगार से जोड़ने की जरूरत बतलाई। तीसरे सत्र में शिवराजसिंह ‘निसंग’ ने गढ़वाली शब्दों की व्युत्पत्ति पर चर्चा करते हुए कहा कि प्राकृत से ही गढ़वाली निकली है। डा. आशा रावत ने गढ़वाली साहित्य और साहित्यकारों के रचनाकर्म पर प्रकाश डाला। पुराविद् डॉ. यशवन्तसिंह कटोच ने कहा कि गढ़वाली भाषा सुरक्षित रह सके, इसके लिये इसका अविरल प्रयोग जरूरी है। नरेन्द्र कठैत ने बताया कि किस प्रकार से राजाओं के शासनादेशों और दानपत्रों में गढ़वाली का उपयोग होता था।

दूसरे दिवस के चार सत्रों के पहले सत्र में डॉ. नन्दकिशोर ढौंढ़ियाल ने जागर व मांगल गीतों, पँवाड़ों के मूल रूप में सरंक्षण की आवश्यकता जताई। प्रेमलाल भट्ट ने कहा कि कत्यूरी काल में संस्कृत के शिलालेख व दानपत्र इस मान्यता को पुष्ट करते हैं कि उस समय लोकभाषा गढ़वाली के साथ दूसरी भाषा रही होगी। इस सत्र के अध्यक्षीय भाषण में सुप्रसिद्ध लेखक भगवती प्रसाद नौटियाल ने गढ़वाली में बन रहे शब्दकोश के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि गढ़वाली में हजारों शब्द ऐसे हैं जिनका ठीक-ठीक अंग्रेजी अर्थ निकालना जटिल काम है।

पाँचवे सत्र में बाल पत्रकारिता पर काम कर रहे भुवनेश्वरी महिला आश्रम के गजेन्द्र नौटियाल ने गढ़वाली नाटकों व नाटक करने वाली संस्थाओं का उल्लेख किया। गीतकार एवं गायक चन्द्रसिंह राही ने अपने प्रभावकारी सम्बोधन में कहा कि जब लोक बचेगा तो विधायें भी बचेंगी। फिलहाल धुनों को संरक्षित करने का प्रमुख तरीका उनका आडियो व वीडियो बनाना ही है। लोकगीत तभी हैं जब लोक धुन है। उन्होंने वादकी समुदाय को गढ़वाल का सर्वप्रथम रचनाकार बताया, जिन्होंने शिल्पकला से लेकर गायन तक की बुनियाद रखी। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान व उत्तराखण्ड हिन्दी अकादमी की कार्यकारी अधिकारी व प्रभारी निदेशक सविता मोहन ने कहा – इन संस्थाओं के विधिवत काम करने के बाद से शोध काम को गति मिलेगी। उन्होंने कई योजनाओं की चर्चा की जो यह संस्थान करेंगे। उनका पहला काम भाषाई सर्वेक्षण होगा जो ग्रियर्सन ने सदियों पहले किया था।

छठे सत्र में अध्यक्षीय भाषण में अखिल गढ़वाल सभा के सचिव रोशन धस्माना ने कहा कि राजनीतिक मोर्चे पर इच्छाशक्ति की कमी के कारण गढ़वाली पिछड़ रही है। संपादक ‘खबर सार’ बिमल नेगी ने भी सरकार की उदासीनता का जिक्र किया। त्रिभुवन उनियाल ने समाचार पत्रों के गढ़वाली भाषा की स्थिति एवं गणेश खुगशाल ‘गणी’ ने लोकसंस्कृति और गढ़वाली विषय पर व्याख्यान दिये।

सप्तम सत्र में अध्यक्षीय व्याख्यान देते हुये इतिहासकार रणवीरसिंह चौहान ने गढ़वाली लोकगाथाओं के बारे में अपनी बात रखते हुए कहा कि जागर-पँवाड़े हमारी धरोहर हैं, जो श्रुत रूप से सदियों से चले आये थे किन्तु अब समाप्ति की कगार पर हैं। गढ़वाली कवि मदनमोहन डुकलान ने गढ़वाली की काव्य भाषा पर अपनी बात रखी। रामकुमार कोटनाला ने विभिन्न कोशों की जरूरत व आर.एस. असवाल ने गढ़वाली की प्रशाखा रवाँल्टी पर अपने विचार रखे।

समारोह में कवि सम्मेलन व गायन प्रस्तुतियाँ भी र्हुइं। कवि गोष्ठी में देवेश जोशी, ललित केशवान, नागेन्द्र जगूड़ी ‘नीलाम्बरम’, दर्शन सिंह बिष्ट, गणेश खुगशाल ‘गणी’, मुरली दीवान, ओमप्रकाश सेमवाल, जगदम्बा चमोला व अद्वैत बहुगण ने कवितायें-क्षणिकायें सुनायीं। लोककला एवं परफार्मिंग आर्टस द्वारा एक गढ़वाली नाटक का मंचन किया गया। दूसरे दिन गायिका बसन्ती बिष्ट की जागर, गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोककला एवं निष्पादन केन्द्र की लता तिवारी एवं संजय पाण्डे ने नये सन्दर्भ में चैती गीतों व कुमाउंनी नौटंकी शैली की प्रस्तुतियों और वादकी बचनदेई व रामचरण की प्रस्तुति ने दर्शकों को झकझोर कर रख दिया। अन्त में नरेन्द्रसिंह नेगी ने जागर शैली से लेकर अपने चुनिन्दा गीतों को प्रस्तुत किया। इस अवसर पर बी. मोहन नेगी के द्वारा लगाई गढ़वाली साहित्य की 300 दुर्लभ पुस्तकों की प्रदर्शनी, कविता पोस्टर प्रदर्शनी के अलावा गढ़वाली वाद्य यन्त्रों, गढ़वाली गीतों, फिल्मों, लोक संगीत की कैसेट, सी.डी व डी.वी.डी. की प्रदर्शनी आकर्षण का केन्द्र बनी रही।

Saturday, August 14, 2010

उत्तराखंड गढ़वाली गाना

पहाङी समाज में नारी की भूमिका सौणा का मेहना मा अपना गो गाली और माँ तय छे याद कानी मी कन छो ये सोणा का महीना मा मी अपना सुसराल मा डाडा काठी मा कुयेडी चा लगी मा डोर चा लगनी भरी दिन मा भी यान चा जन अँधेरी रात वो यख सरग गगडानद मा मीन कन मा रेन यख घनघोर परदेस मा

सौणा का मेहना
सौण का मेहना
बुवे कनु कै रेणा
कुयेडी लौन्काली अन्देरी रात बरखा की झमणाटा

...ख़ुद तेरी लागली चौ डंडियों पोर सरग गगडानद हिरिरिरी
पापी बरखा झुकी आन्द बडुली लागली सौण का महिना ,

बुवे कानु कै रेणा,
कुयेडी लौन्काली सौण का मेहना,
बुवे कानू कै रेणा गाड गद्नियो स्वी स्यात घनघोर तुम परदेश ,

मी अकुली घोर ज्यूकडी डौरली सौण का मेहना, बुवे कानू कै रेणा ,
कुयेडी लौन्काली याकुलू सरेला , उनी प्राणी क्वासु सेर बस्ग्यल ,

अब दण - मण आंसू आंखी धोलाली सौण का महिना ,
बुवे कानु कै रेणा, कुयेडी लौन्काली डेरा नौन्याल ,
आर पुंगडियो धान बरखा का दिडो मां घांस कु भी जाण

झूली मेरी रूझाली सौण का म्हणा, बुवे कानू कै रेणा ,
कुयेडी लौन्काली
सौण भादों बर्खिकी चली गिनी ऋतू
गिनी मेरी आँखें नि ऊबेंई कानू के उबाली,
सौण का महीना बुवे कानू कै रेणा ,

कुयेडी लौन्काली अन्देरी राता,
बरखा की झमणाटा,
ख़ुद तेरी लागली
सौण का महीना

Monday, August 9, 2010

हरिद्वार कंवार मेला

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌।

स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥


शिव के भक्तो सुन लो
फिर सावन आया है
बाबा ने तुमको
हरिद्वार बुलाया है
बेल चढाओ फूल चढाओ
और चढाओ गंगाजल
तेरे हर परेशानी का
बाबा कर देगा हल
शिव के भक्तों सुन लो….
मेरा जटाधारी ये शिव
नीलकंठ कहलाता है
हर भक्तों के जीवन से
विष वो पी जाता है
चलो उठाओ कावर भक्तों
सुख की घडी अब आया है
बाबा ने तुमको
हरिद्वार बुलाया है.
शिव के भक्तों सुन लो….
मेरा बाबा बड़ा ही दानी है
ये तो अंतर्यामी है
देव असुर सब इनको पूजे
कहलाता महादानी है
चलो गंगाजल भर के भक्तों

सावन में ये बाँटने आया है
बाबा ने तुमको
हरिद्वार बुलाया है
शिव के भक्तों सुन लो….

Sunday, August 8, 2010

नैनीताल दुआ करें कि नियम-कानूनों की अवहेलना के बावजूद बच जाये

nainital-lake-and-boats 10 जून को हुई इस ग्रीष्म की पहली बारिश ने नैनीताल को स्वच्छ व सुन्दर बनाए रखने के दावों को झुठला दिया। करीब दो घंटे की इस मूसलाधार बारिस से नालों, सड़कों, पैदल मार्गों का तमाम कूड़ा-कचड़ा, वैध-अवैध रूप से बने भवनों का नालों में पड़ा मलवा बहकर झील में समाने के साथ ही मालरोड में फैल गया। कई जगह सीवर लाईन चोक होकर बाहर फूटने से उसकी गंदगी सड़कों से होकर झील में बहने लगी। लोअर माल रोड तो जगह-जगह मलवे से पट गई। बारिश बंद होने पर प्रशासन के साथ झील व नगर संरक्षण से सम्बद्ध सभी विभाग, सहयोगी संगठन व नगर के प्रबुद्ध लोग मण्डलायुक्त की अगुवाई में नगर व झील की सफाई में जुट गए। सेना व स्वयंसेवी संगठनों ने भी कुछ हिस्सों को साफ रखने का संकल्प लिया। जिलाधिकारी शैलेश बगौली ने बताया कि मालरोड के ऊपरी क्षेत्र में एक हजार आवास चिन्हित किए गए हैं, जिनकी छतों का बरसाती पानी सीवर लाइन में जा रहा है। मंडलायुक्त कुणाल शर्मा ने जल निगम व जल संस्थान के अधिकारियों को सीवर लाइनों की तत्काल सफाई कर आवासीय भवनों के बरसाती पानी को सीवर लाइन में जाने से रोकने के निर्देश दिए और विशेषज्ञों की मदद लेकर सीवर चोक होने की समस्या का स्थाई समाधान करने को कहा।

अगले दिन झील के चारों ओर लोग अपने-अपने हिस्से की सफाई में जुट गए। मीडियाकर्मी आते और कुछ लोगों से बातचीत करते, कैमरा वाले फोटो खींच ले जाते। उधर पी.डब्ल्यू.डी. व झील विकास प्राधिकरण भी सक्रिय हो गये। एस्टिमेट बनाये जाने लगे। सिल्ट निकालने के लिये भारी भरकम जेवीसी मशीन झील में उतार दी गई। टी.वी. चैनलों व दैनिकों में रंगीन फोटो सहित समाचार आने लगे। सैकड़ों ट्रक मलवा नगर से दूर फेंका जाने लगा। पम्प हाऊस के पास एक जेवीसी मशीन के दलदल में फँस जाने से दो-तीन दिन लोअर माल में यातायात बाधित रहा। जेवीसी निकालने दो-तीन जेवीसी तथा क्रेन और मँगाने पड़े। गोताखोर, नाव वाले भी जेवीसी निकालने में जुटे। तमाशबीन लोगों की भीड़ से एक मेले का सा माहौल बन गया। लोग चटखारे लेते और अपनी राय भी देते। कहते- ऐसे कैसे बचेगा नैनीताल। यह सब झील संरक्षण के नाम पर आ रहे बजट को खपाने का खेल है। नैनीताल को सुरक्षित व स्वच्छ बनाए रखने के बुनियादी सवालों पर तो कोई बोल ही नहीं रहा है। हर प्रभावशाली व्यक्ति चाहे वह बिल्डर हो या माफिया, नेता हो या जनप्रतिनिधि सब नैनीताल को अपनी-अपनी तरह से बर्बाद करने पर तुले हैं। बरसात से पूर्व यह सब तो कुछ वर्षों से होता रहता है। क्या पूर्व में लिए गए निर्णयों पर अमल हुआ ? भूस्खलन तो कहीं हुआ नहीं, फिर इतनी सिल्ट सड़कों व तालाब में कैसे पहुँची ? भविष्य में ऐसा न हो, उसके लिए क्या पुख्ता इन्तजाम किये जा रहे हैं ? जगह-जगह फौवारे की तरह ऊपर उठ कर सड़क गन्दा कर झील में समाने वाले सीवर का स्थाई समाधान क्यों नहीं होता।

नैनीताल को बचाने की इस मुहिम में प्रशासन का चरित्र झलक रहा था। सड़कों व मालरोड में फैले मलवे को तत्काल हटाना जरूरी था। पर इस काम में लगे विभागों का आपस में कोई तालमेल ही नहीं था। सब एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे।

नैनीताल की सुरक्षा एवं इसको स्वच्छ रखने के संदर्भ में हमें इस नगर की समस्याओं को समग्र में देखना होगा। मगर हो यह रहा है कि झील संरक्षण, मिशन बटरफ्लाई, जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय नगरीय नवीनीकरण मिशन (जे.एन.एन.यू.आर.एम.) के रूप में आ रहे करोड़ो-अरबों रुपए के बजट को खपाने की ललक में हम सौंदर्यीकरण के नाम पर गैरजरूरी कामों के जरिये नगर को कंक्रीट के जंगल में बदलने की तैयारी कर रहे हैं। नगर की हरीतिमा, सूखते जा रहे जल-स्रोतों, पॉलीथीन की समस्या, यातायात नियंत्रण, क्षमता से अधिक भवनों के निर्माण पर रोक, नालों से मलवा बहाकर झील में भेज देने वालों को दण्डित करने जैसे सवालों को भूल जा रहे हैं।

नैनीताल की समस्याओं की छानबीन के सिलसिले में जब हमने सम्बन्धित विभागों के चक्कर लगाने शुरू किए तो नगरपालिका से हमें महंगे ग्लेज्ड कागज में छपे दो बहुरंगी फोल्डर मिले। मगर ये चकाचौंध कर देने वाले फोल्डर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करने में असमर्थ थे। पी.डब्ल्यू.डी. में पता चला कि करीब 13 लाख के एस्टीमेट के ऐवज में ‘राष्ट्रीय झील संरक्षण परियोजना’ के तहत 3.39 लाख स्वीकृत हुआ है, जिसमें से बोट हाउस क्लब व नैना देवी मंदिर के निकट के नाला नं 21 व 23 की सफाई के लिए प्रान्तीय खंड को एक लाख तथा निर्माण खंड को दो लाख रुपए अवमुक्त हुए हैं। जेवीसी मशीनों द्वारा तालाब से सिल्ट निकालने और ट्रकों द्वारा उस मलवे को दूर फेंकने में आए खर्च का भुगतान अभी नहीं किया गया है। 1880 में आये जबर्दस्त भूस्खलन के बाद अंग्रेजों द्वारा नगर की सुरक्षा की दृष्टि से बनाये गये नालों के रखरखाव व उनमें भर गई सिल्ट को निकालने के लिए लोनिवि के पास न बजट है और न पर्याप्त मजदूर। पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व तक इनकी देखरेख के लिए लोनिवि. की गैंग में 80 मजदूर काम करते थे। अब 24 मेट-बेलदार तथा कुछ मृतकाश्रित महिलाएँ ही रह गये हैं। नये मजदूरों की भर्ती पर रोक है। पहले इस मद में 10-12 लाख रुपया मिलता था, लेकिन राज्य बनने के बाद वह बंद हो गया। लोनिवि को इस सफाई अभियान के दौरान झील संरक्षण विभाग द्वारा की गई अनावश्यक बयानबाजी से नाराजगी है। सिल्ट निकालने के लिये जेवीसी जहाँ से झील में उतारी जाएगी, वहाँ कुछ नुकसान तो होगा ही। इसके लिये पूर्व से न कोई मार्ग बने हैं और न ही कोई स्थान तय हैं। लोनिवि ने भी पलटवार करते हुए झील संरक्षण परियोजना के तहत लेकब्रिज निर्माण में हुई एक बड़ी लापरवाही की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए स्पष्टीकरण माँगा है। पत्र में लिखा है कि तल्लीताल पोस्ट ऑफिस के पीछे बलिया नाले की ओर कराये जा रहे निर्माण कार्य से उसके नीचे झील के पानी की निकासी हेतु बने पाँच गेटों तक पहुँचने का मार्ग बंद कर दिए जाने से सफाई नहीं हो पा रही है। भविष्य में होने वाले खतरों की जिम्मेदारी झील संरक्षण विभाग की होगी।

झील संरक्षण परियोजना के परियोजनाधिकारी सी.एम. साह के अनुसार नैनीताल के लिए स्वीकृत कुल 47.96 करोड़ रुपए के बजट में से अवमुक्त 43.43 करोड़ रुपए का विभिन्न कार्यों में उपयोग कर लिया गया है। 12.7 किमी. लम्बी सीवर लाईन में 693 संयोजन जोड़े गए। 36 चिन्हित भवनों की नालियों से सीवर लाईन से जुड़ा कनेक्शन अलग कर दिया। 27 सामुदायिक शौचालयों में से 25 बना दिए, एरिएशन सितम्बर में पूरा होगा। अप्रेल 2008 से प्रारम्भ मिशन बटर फ्लाई योजना के तहत 38 स्वच्छता समितियों का गठन कर आठ सौ परिवारों के अलावा 32 होटलों, 10 रेस्टोरेन्टों, 17 विद्यालयों तथा 7 अन्य संस्थानों को इस मिशन का सदस्य बना लिया गया है। इसके अलावा 51 लाख गम्बूसिया, 20.5 लाख पुंटिस मछलियाँ झील से निकाल 1.15 लाख सिल्वर काक, और 15 हजार महासीर डाल दी गई हैं। कैचमेंट क्षेत्र स्नोभ्यू, बिड़ला, ठंडी सड़क में 33 हजार वृक्ष लगाये गए हैं।

मिशन बटर फ्लाई को शुरू हुए दो साल से ज्यादा हो गया है। इसकी समीक्षा होनी चाहिए। लोगों का कहना है कि इस योजना में सुपरवाइजर ज्यादा हो गए हैं, काम करने वाले कम। 2001 की जनगणना के अनुसार नगर की स्थायी जनसंख्या 39,639 है और कुल परिवार 9,386 हैं। इस बीच हाईकोर्ट के लिए तमाम विभागों के कार्यालय व आवासीय भवनों को खाली कर दिए जाने से जनसंख्या घटी ही होगी। लेकिन इन दो सालों में तमाम प्रचार के बावजूद मिशन बटरफ्लाई से आठ हजार परिवार ही जुड़ पाए हैं। होटल, ढाबे-रेस्टोरेन्ट, सरकारी गैर सरकारी संस्थान, आवासीय भवन आदि तो अभी इस योजना से जुड़े ही नहीं।

नैनीताल की सफाई का सवाल वैध-अवैध रूप से बन रहे भवनों के निर्माण व उनके मलवे के निस्तारण से भी जुड़ा है। 1984 में प्राधिकरण बनने के बाद यहाँ भवनों के निर्माण में तेजी आई। किसी का अंकुश नहीं रहा। तमाम नियम-कानूनों को ताक में रख कर, जिसे जहाँ मौका मिला भवन बनाने लगा। इस अपराध में हर तबका शामिल है। धनबल, बाहुबल वाले ही नहीं, सामान्य फड़ लगाने वाले लोग भी। आज भी प्राधिकरण को बड़ी रकम देकर नक्शा पास कराये या बगैर पास कराये मकान बनाने का सिलसिला जारी है। कुछ माह पूर्व तक रतन कॉटेज कम्पाउण्ड में जीर्णोद्धार के बहाने बनाया जा रहा एक विशाल भवन चर्चा में था। ताजा प्रकरण एक प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा स्टोनले के निकट जिला पंचायत की जमीन में चौमंजिला भवन निर्माण का है। हालाँकि जिला पंचायत का कहना है कि उक्त जमीन गैरेज व सर्वेन्ट क्वार्टर बनाने के लिये लीज में दी गई है। जब ऐसे कामों का विरोध होता है या प्रशासन अचानक शिथिलता तज कर कार्रवाही करने लगता है तो राजनैतिक पहुँच वाले लोग, वकील आदि एकजुट होकर इससे बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। दबाव बनने पर पुलिस-प्रशासन के साथ प्राधिकरण के लोग खानापूर्ति के लिए अवैध निर्माण को ध्वस्त करने का छिटपुट नाटक कर चुप हो जाते हैं।

दरअसल नैनीताल की समस्यायें बहुआयामी हैं, लेकिन इसका इलाज सिर्फ खानापूरी के रूप में हो रहा है। कड़े कदम उठाने का साहस न सरकार-प्रशासन के पास है और न कड़ाई बर्दाश्त करने का बूता यहाँ के निवासियों के पास। इसलिये नैनीताल के लिये केवल शुभकामनायें ही व्यक्त की जा सकती हैं, इसका स्थायी इलाज नहीं किया जा सकता।