Saturday, May 1, 2010

पीन’ अप गर्ल उर्फ उत्तराखंड की नायिका कथा

पीन’ अप गर्ल उर्फ उत्तराखंड की नायिका कथा

मेरे एक दोस्त कहते थे महिलाएँ सब एक सी होती हैं। उनका संदर्भ शायद शेक्सपियर के- ‘औरत तेरा दूसरा नाम बेवफाई हैं से जुड़ता होगा। मैं इतना सार्वभौम सामान्यीकरण करने का दुःसाहस नहीं कर सकता। किन्तु कुछ नमूने ऐसे हैं, जिनमें पहाड़ी नायिकाओं के एक जैसी होने के सबूत मिलते हैं। इस पर प्रकाश डालने के लिए आवश्यक है कि मैं आपको कुछ सामान्य लगने वाली चीजों के बारे में पहले बताऊँ, जिससे मुझे अपनी बात समझाने में मदद मिल सके। इन चीजों में पहला यंत्र है सेफ्टीपिन, जो अंग्रेजी के अक्षर आर की तरह होता है। इसका एक हिस्सा सुई की तरह होता है। तीखी नोंक और मध्य में दो गोल चक्कर खाया हुआ। इन गोल चक्करों के बाद यह पहली भुजा की समान दूरी तक सुई के रूप में जाता हैं, जहाँ इसको एक टोपी सी पहना दी जाती है। यहाँ एक खाँचा होता है। इस खाँचे में जाकर पहली भुजा अटक जाती है और इस प्रकार सेफ्टीपिन बनता है।
मुझे पाठक क्षमा करेंगे कि मैने सेफ्टीपिन की बनावट समझाने में इतनी लाइनों का प्रयोग किया। तथापि मेरे पास इसके वैध कारण हैं। मैं चाहता हूँ कि आप सेफ्टीपिन की संरचना को अपने मस्तिष्क में भली भाँति बिठा लें, जिससे आपको हमारी नायिका की अंतरंग मनोवृत्ति को समझने में मदद मिले। तो साब, ये जो सेफ्टीपिन है, इसे अधिकांश नायिकाएँ पहाड़ में ‘पीन’ के नाम से जानती व पुकारती हैं। वे इसका प्रयोग बेरोकटोक, स्चच्छन्दता पूर्वक करती हैं, जैसे सोनिया जी राजनीति में राहुल का। बटन चाहे सलामत हों, ‘पीन’ दो बटनों के बीच एडजस्ट कर लिया जाता है, चाहे वह जोड़ने जैसा या कोई कार्य सम्पन्न न कर रहा हो…… जरूरत हो तो क्या कहने।
मुझे लगता हैं कि यदि आलपिन ईजाद न हुआ होता तो सुन्दरियाँ बटनों के प्रति इतनी लापरवाह कभी न होती। ऐन टैम पर इनको आलपिन की जरूरत महसूस होते देखी गई है। वह कह सकती हैं, ‘‘पीन कथाँ गईं बज्यूण ?’’ या ‘‘म्यर पीनें हरै गईं….’’ या ‘‘एक पिन तो दे दो भाभी’’ आदि-आदि। कुछ जागरूक नायिकाएँ पिनों की एक लड़ी सी हर स्वैटर में पहले से ही टाँगे रहती हैं, जिससे भविष्य में कोई आपदा उत्पन्न न हो। कइयों के पर्स में यह लड़ी विभिन्न साइजों में विद्यमान रहती है। जहाँ जैसी आवश्यकता हो फिट कर दो। जब एक पिन उचित स्थान पर लग चुकी हो और दूसरी, नायिका की दंतपंक्ति के मध्य कसमसा रही हो और कोई कह दे, ‘‘हाई, बरियात ऐ लै ग्ये. … तू पिनें लगूण में रये!’’ इस स्थल पर पीन के साथ हमारी नायिका की छवि देखते ही बनती है। वह अलतलाट के भाव दिखाती हैं, अचानक पिन को बाँये हाथ की अंगुलियों के बीच दबोच, दाँये हाथ से पिन आरोपित किए जाने के प्रस्तावित स्थल पर पिन के कार्य को अंगुलियों द्वारा सम्पादित करते जवाब देती है, ‘‘ओ ईजा मेरी…!’’
कहने का अर्थ यह है कि अधिकांश पहाड़ी नायिकाएँ पिन का प्रयोग करती देखी गई हैं। उनके श्रृंगार का लगभग 108वाँ हिस्सा पिनों पर निर्भर हैं। वह इस आदत को ससुराल तक ले जाती हैं। सेफ्टीपिनों के इस महत्व के मद्देनजर मैं इन पहाड़ी नायिकाओं को ‘पीन सुन्दरी’ नाम से भी पुकारता आ रहा हूँ। विश्व के शेष हिस्सों में ऐसा होता होगा, कह नहीं सकता, किन्तु देश-विदेश की पत्रिकाओं में बीच के पन्ने पर छपने वाली सुन्दरियों के जिन फोटुओं को पिन-अप दृश्यावली की श्रेणी में रखा जाता है- उनसे उक्त सुन्दरियों का उत्तराखंड से पूर्व जन्म के संबंध होने का विचार अवश्य आता है। वैसे कौन जाने वे सुपर मॉडल दुनिया के उस हिस्से में सेफ्टीपिनों का सम्यक प्रयोग कर रही हों। आज तक आपने इन पिनों को नायिका के वस्त्रों पर लगे कदाचित ही देखा हो, दरअसल यही इनकी खासियत है, ये दिखते नहीं पर अपना काम कर देते हैं। हमारी नायिकाओं के मनोविज्ञान और सेफ्टीपिन की बनावट में काफी समानता लगती है। वह एक ओर काफी तीखी मिलती है। जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपका सामना गोल चक्कर से होता हैं। यदि आप उसे क्रॉस कर गये तो उस टोपी तक पहुँच जाएँगे, जहाँ तेज नोंक ऐसे छुप जाती हैं जैसे चुनावों के बाद बी.जे.पी. का राममंदिर एजेंडा। पहाड़ की नायिका सेफ्टीपिन जैसे जोड़ने की क्षमता रखती हैं, बस, ‘हैंडिल विथ केयर‘ लेबल के साथ नहीं दिखती। मेरी समझ में सेफ्टीपिनों की लड़ी के साथ लटके हरे रंगे के टैग पर अवश्य यह वैधानिक चेतावनी लिखी जानी चाहिए। अनाड़ियों के हाथों में मैने कई बार सेफ्टीपिन चुभते देखी हैं।
अनाड़ियों की क्या बात करें ? निरबुद्धि राजैकि काथै काथ! हमारी नायिकाएँ जब इन्हें प्रेम की कसौटी पर परखती हैं तो हाथ की पतंग की तरह ट्रीट करती हैं। पहले कन्ने बाँधती हैं, फिर सहेली आदि से छुटकैंयाँ दिलवाती हैं। कभी ढील देती हैं, फिर अचानक सद्दी में टेंशन ले आती हैं, जिससे पतंग फर्राटा मारती आसमान चूमने सी निकल पड़ती है। कभी उतार देती हैं और कभी पेंच लड़वा देती हैं- जिसका माँझा असली हो वो काट ले। वह अपनी डोर को लटाई में लपेट लेती हैं। अगर पतंग कटे नहीं तो छोटे-मोटी वीयर एण्ड टीयर को चिप्पी लगाकर इलमारी के ऊपर रख देती हैं। जो कट जाये तो चार आने की नई ले आती हैं।
ये अलग बात है कि सच्ची में हमारी बहुत कम नायिकाएँ पतंग उड़ाना जानती हैं। उनके पास इतना टाईम भी नहीं होता। डोर के नाम पर वह बिनाई की ऊन को अधिक पसंद करती हैं। सलाइयों पर उनकी उँगलियों की हरकत और तर्जनी पर सरकती ऊन की लयकारी पर किसी शायर की नजर पड़ती तो पहाड़ पर मीर का रंगे सुखन बरस पड़ता। पर वे अपने फन से अनजान ही लगती हैं। पेश दर पेश बिनती सिर्फ टाईट या लूज हाथ ही देखती हैं, उँगलियों की ओर इनका ध्यान नहीं जाता। इनके बुने स्वैटर तीयल में जाएँ या भाई बहनों के तन पर फबें, ‘टैग लैस कम्फर्ट’ में ‘हेन्स’ को मात दे जायें। मेरा ख्याल है कि अपने तसव्वुर में वे नायक को केबल या मोड़ वाली बिनाई का स्वैटर डाले देखती होंगी। रमा, उमा से-‘‘हाइ रे इश छाँट में इतुक सफाई!’’ उमा- ‘‘ततुक भलि लागणे त् तु धर ले, अघिल साल लगनौं तक सिराण मुणि च्यापि राखिये एथाँ स्वैणाँ में आला, पैरे दिए….।’’ रमा- ‘‘ना-ना रम्भा तू आपणि कारीगरी दिल्ली हाट में बेचि खाए, कोई ठीक जश पैरि लिगयो पिछाड़ि बटी जै बेर गाव में जैमाल खिति दिए…’’ कुल मिलाकर उक्त रमा-उमा संवाद से प्राप्त शिक्षा यह है कि हमारी नायिकाओं के सपनों की सजावट-बुनावट में ऊन-सलाई का अधिक दखल लगता है, बजाए डोर-पतंग की ढील-लपेट के।

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