Saturday, May 1, 2010

पौड़ी : करोडो बहाकर भी न बुझी प्यास

पौड़ी : करोडो बहाकर भी न बुझी प्यास
मंडल मुख्यालय पौड़ी के बाशिन्दों को गर्मियों की तपिश का एहसास मैदानी इलाकों की तरह चिलचिलाती धूप से नहीं, बल्कि पेयजल आपूर्ति के पूर्णतया गड़बड़ाने से होता है। पौड़ी से दिखने वाली लंबी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला गर्मियों में धुंध की चादर ओढ़ अदृश्य हो जाती है। भूले भटके आये पर्यटकों को ही कभी कभार हिमदर्शन होता है, और इधर दिखायी देते है हाथों में डिब्बे और सिर पर बंठे लिये पानी की तलाश में पौड़ीवासी। इस बार तो गर्मियों ने दस्तक भी जल्दी दी है और उस पर पौड़ी की चरमराई, बूढ़ी श्रीनगर-पौड़ी पेयजल योजना, जिसके कभी पंप जवाब दे जाते हैं तो अक्सर जंक खाये पाईप लीक करते जाते हैं। शासन की हरी झंडी के बाद कई सालों से डायलिसिस पर चल रही इस परियोजना में लेटलतीफ जल संस्थान ने गर्मियाँ आने तक मात्र 3 ही नये पंप लगाये हैं, जिनका अभी परीक्षण ही चल रहा है। शहर के प्रति अपनी सभी परीक्षाओं में अनुतीर्ण यदि इस विभाग के ये पंप अपना टेस्ट पास कर लेते हैं तो शहरवासियों को शायद कुछ राहत मिल जाये। हालाँकि शहर की खपत के अनुरूप पानी के लिये इन्तज़ार अभी और न जाने कितना लंबा है, क्योंकि नये पंपो के बाद भी पौड़ी को मात्र 2 एमएलडी पानी नसीब होगा। जबकि शहर की मौजूदा ज़रूरत 8.04 एमएलडी की है।
एक दिन छोड़ कर पानी मिलने की तो पौड़ीवासियों को अब आदत सी हो गयी है और गर्मियों में भी कई दिनों तक पेयजल व्यवस्था ठप हो जाने के बावजूद प्राकृतिक स्रोतों के सहारे किसी तरह काम चला कर जनता अपने धैर्य का परिचय देती ही आयी है। लेकिन अब तो शहर के पास किसी प्राकृतिक स्रोत का भी आसरा नहीं। इस वर्ष आखिरी बचे शहर की जीवनधारा कहे जाने वाले लक्ष्मीनारायण मंदिर स्रोत के सूखते ही यह सहारा भी शहरवासियों से छिन गया है। अब तो सब जल संस्थान पर निर्भर है, जिनसे अक्सर यही सुनने को मिलता है कि पाईप बदल रहे हैं तो कभी वाल्व बदल रहे हैं। बाद में पता चलता है कि सब जस का तस है, कुछ भी नहीं बदला। बस अधिकारी ही बदल रहे हैं। जो भी आता है, अपनी जान छुड़ा कर भागना चाहता है। लेकिन वे शहरवासी जिनकी जान ही यहाँ बसी हो, वह कहाँ भागे ? उनके दिन का आगाज़ तो नलके की टोंटी की तरफ टकटकी लगाकर पानी की टपटप के इन्तज़ार से होता है, जो लगभग पूरी गर्मियों खत्म ही नहीं होता। फिर लोगों को पानी के लिये अपने सब काम छोड़ सड़कों पर उतरने को मजबूर होना पड़ता है। इस वर्ष तो परिस्थितियाँ और गंभीर होने की आशंका है। पानी की किल्लत को लेकर बुलायी गयी आपात बैठक में अधिकारियों के बिना तैयारी के आने से नाराज जिलाधिकारी को यह तक कहना पड़ा कि पानी को लेकर यदि सम्बन्धित अधिकारियों का धेराव होता है तो प्रशासन कोई भी सुरक्षा मुहैया नहीं करवायेगा।
पौड़ी में पानी की कहानी नानघाट जल परियोजना की बात किये बिना अधूरी है। मंडल मुख्यालय पौडी में पेयजल समस्या के निवारण के लिये नानघाट जल परियोजना ने 2003 में जन्म लिया। गुरुत्वाधारित इस योजना से पौड़ी की प्यास बुझाने का बीड़ा केन्द्र ने उठाया, लेकिन उसने उत्तराखण्ड की सभी बहुप्रतीक्षित योजनाओं को पूरा करने के लिये 100 करोड़ की धनराशि देकर अपने हाथ खींच लिए। इसके बाद इस परियोजना को पूरा करने का राज्य सरकार ने दम भरा। तिरपालीसैंण के निकट नानघाट गदेरे से ग्राम खण्ड मल्ला, डबरूखाल, पिठुंडीखाल, फुरखण्डाखाल, चौबट्टाखाल, मांडाखाल, बुवाखाल होती हुई करीब 79.15 किमी लंबी यह पेयजल योजना पौड़ी के शीर्ष पर स्थित नागदेव रेंज पहुँचनी है। 2003 से 2005 तक ये योजना वन महकमे की हरी झंडी मिलने के इंतजार में ठंडे बस्ते में ही सिकुड़ती रही। बमुश्किल 2005 में बस्ते से बाहर निकलकर इसने अंगड़ाई ली और तब से रेंगती आ रही है। पिछले 7 वर्षों में यह परियोजना 44 करोड से 65 करोड़ तक जा पहुँची, लेकिन पौड़ी नगर में पानी नहीं पहुँचा। अब तक करोड़ों रुपये इस परियोजना पर खर्च हो चुके हैं और दिसंबर 2010 तक इसे पूरा किये जाने का दावा भी जल निगम कर रहा है। लेकिन अभी तक तो यह परियोजना पौड़ीवासियों को कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। कछुए की चाल से कई मोड़ काटती यह परियोजना पौड़ी की अपेक्षा कभी अदालत की तरफ भटक जाती है तो कभी कहीं और अटक जाती है। भविष्य में कब मंज़िल तक पहुँचेगी, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सालों से सड़क के किनारे बेतरतीब रखे मोटे पाईपों को देखकर शहरवासियों को यह उम्मीद बनी रहती है कि हाँ यह परियोजना अभी ज़िन्दा है। कभी न कभी तो पौड़ी तर हो ही जायेगा।
कुल मिलाकर इन दिनों पौड़ी में पीने को तो पानी नहीं है, लेकिन हरेक की जुबाँ पर पानी ही पानी है। स्थिति और भी विकट हो जाती है, जब दो दिन में एक बार चुल्लू भर पानी आता है और उस पर भी टुल्लू लग जाते हैं।

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