Sunday, May 2, 2010

ऐसे बनती हैं नावें नैनीताल की !


ऐसे बनती हैं नावें नैनीताल की !





चप्पू वाली नावें नैनीताल की पहचान हैं। इन नावों का इतिहास जितना रोचक है, उतनी ही रोचक हैं इन नावों को बनाने की विधि। नावों को बनाने के लिये तुन की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। तुन की लकड़ी लोचदार होती है, बहुत हल्की होने के कारण पानी में आसानी से तैरती है और पानी में आसानी से सड़ती नहीं है। नाव की लम्बाई 21.5 से 22 फीट होती है, चौड़ाई 4 फीट व ऊँचाई 18 इंच होती है। वजन लगभग एक क्विंटल होता है।

सबसे पहले नाव का आंतरिक ढाँचा (फ्रेम) बनाया जाता है। जो नाव का सबसे अहम हिस्सा है। दूसरा नम्बर है नूक (आगे का गोलाई वाला हिस्सा)। तीसरा नम्बर आता है गोला (नाव का तला) का, जिसे नाव की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। चौथा नम्बर आता है माड़ा और बाड़ा का जिन्हें आपस में जोड़कर लकड़ियाँ लगायी जाती हैं। नाव के एक तरफ लगाये जाने वाली लकड़ियों की संख्या कम से कम 18 होती है, जो 6 इंच की होती हैं। एक लाइन में ऐसी 6 पट्टियाँ लगती हैं। यह तो हुआ नाव के बाहर का काम।

इसके बाद बारी आती है अंदरी भाग के निर्माण की। इसमें नाव में तांबे की कीलें (रिपिट) लगाई जाती हैं। तांबे की कीलों में जंक नहीं लगता, इसलिये ये खराब भी नहीं होतीं। इसके बाद पत्तियाँ चिपकाने और बैठने के लिये कुर्सियाँ लगाने का काम होता है। पूरी नाव में अंदर और बाहर की तरफ साल की राल (पोटीन) लगायी जाती है जो पानी को नाव के अंदर आने से रोकता है। सिंथेटिक वॉर्निश लगाया जाता है और इसे तीन-चार दिन तक सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है। इसके बाद चप्पू बनाये जाते हैं जिन्हें चीड़ की लकड़ी से बनाते हैं। यह 8 फीट लम्बे होते हैं और इनकी आगे से चौड़ाई 5 इंच होती है। इनको नाव में लगाने के लिये रोला बनाया जाता है जो लोहे का होता है। एक नाव को बनाने में कम से 30 दिन तो लग ही जाते हैं। वह भी तब, जब सुबह से शाम तक लगातार काम किया जाये। नावों को साल में दो बार वॉर्निश किया जाता है ताकि ये ठीक रहें और यदि कोई टूट-फूट हो जाती है तो उसे भी इन्हीं दिनों ठीक कर लिया जाता है। ऐसा इसलिये किया जाता है ताकि नाव पानी में आसानी से तैरती रहे और पानी नाव के अंदर न आने पाये।

नाव बनाने वाले राजेन्द्र प्रसाद शिल्पी का कहना है कि एक नाव को बनाने में लगभग 35,000 से 40,000 रुपये तक की कीमत लग जाती है। इस कीमत को वसूलने में लगभग 3 से 5 साल का समय लगता है। यदि नाव वाला स्वयं नाव चला रहा है तो 3 साल और किराये पर देने पर कम से कम 5 साल। उनका कहना है कि आजकल नावों के लाइसेंस कम मिलते हैं, इसलिये नाव बनाने के काम में काफी कमी आ गई है। इस समय झील में नावों की कुल संख्या 222 है, जिनसे लगभग 400 परिवार पल रहे हैं। पैडल बोटों की संख्या भी बढ़ रही है, इस कारण भी नाव बनाने के काम में थोड़ी कमी आयी है। जबकि पैडल बोट से झील को नुकसान होता है।

राजेन्द्र के अनुसार ब्रजवासी जी ने नावों को बनाना शुरू किया था। पर उनके बनाये मॉडल अब नहीं बनते। 1930 के आसपास सरदार धन्ना सिंह ने नावें बनाने का काम शुरू किया। उनसे ही मेरे पिताजी गोपाल राम जी ने सीखा। सन् 1940-1965 तक मेरे पिताजी नैनीताल में अकेले नाव बनाने वाले थे। नावों के नये मॉडल मेरे पिताजी की ही देन हैं। बचपन से पिताजी के साथ रह कर मैंने यह कला उनसे सीखी। उनके देहान्त के बाद मैं इसी शिल्प से अपने परिवार का पालन कर रहा हूँ। राजेन्द्र को अफसोस इस बात का है कि हमारे पास कोई भी वर्कशॉप नहीं है जहाँ वे आराम से इस शिल्प का विकास कर सकें।

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