Saturday, May 1, 2010

आइये ठंडे दिमाग से इस हिसा का जबाब ढूढे

आइये ठंडे दिमाग से इस हिसा का जबाब ढूढे
76 घरों के चिराग बुझ गये। अब उन घरों में बचा है सिर्फ मातम और सिसकियाँ…..एक अनिश्चित और असुरक्षित भविष्य ! छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने घात लगा कर ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ में जुटे सी.आर.पी.एफ. के जवानों पर हमला कर उन्हें भून डाला। इन बलिदानियों में सात शहीद, राजेन्द्र सिंह राणा व बिरजानन्द (सितारगंज, उधम सिंह नगर), महेश सिंह गोबाड़ी (ग्राम भटेड़ी, पिथौरागढ़), विनोदपाल सिंह (घनशाली, उत्तरकाशी), ललित कुमार (भगवानपुर, हरिद्वार), टीकमसिंह (चकराता, देहरादून) और मनोज नौगाई (भीमताल, नैनीताल), उत्तराखंड के भी हैं।
क्या इस हिंसा को स्वीकार किया जा सकता है ? यदि नहीं तो इसका जवाब क्या होगा ?
उत्तराखंड के नौजवान तो हैं ही मरने के लिये। जियें कैसे ? खेती नहीं, उद्योग नहीं…… सिर्फ फौज। बहुत पीछे न भी जायें तो 1999 के कारगिल युद्ध में उत्तराखंड के 115 रणबाँकुरों ने अपने प्राण बलिदान किये थे। देश की आबादी में एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा रखने वाले उत्तराखंड का उस युद्ध में देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिये शहादत का हिस्सा बीस प्रतिशत से अधिक था। दंतेवाड़ा में भी यह शहादत दस प्रतिशत के आसपास है। कारगिल में हमारे नौजवान लड़े थे, उन लोगों के खिलाफ जिन्हें हमारे भाग्यविधाताओं ने सत्ता झपटने की हड़बड़ाहट में सन् 1947 के विभाजन में सीमा के उस पार फेंक दिया था। और इस बार हमारे नौजवान मारे गये अपने ही उन देशवासियों के हाथों, जो अपनी जमीन और अपने जंगल बचाने के लिये अपने ही देश की सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं, ताकि पी. चिदम्बरम उन्हें उजाड़ कर अपनी पूर्व मालिक ‘वेदान्ता’ कम्पनी को उनकी बहुमूल्य बॉक्साईट की खानों पर कब्जा न दिलवा सकें। ताकि रमन सिंह ‘सलवा जुडूम’ के नाम पर उन्हें उनके घरों से बाहर निकाल, कैम्पों में कैद कर उनकी जमीनें खाली न करवा सकें।
ये नक्सली या माओवादी हैं कौन ? संसदीय लोकतंत्र में विश्वास न कर सशस्त्र लड़ाई के जरिये राज्यसत्ता पर अधिकार करने में विश्वास करने वाले लोग। सबसे आसान परिभाषा तो यही है शायद। इस विचारधारा को मानने वाले लोगों ने विभिन्न कालखंडों में विभिन्न स्थानों पर सफलतायें भी अर्जित की हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल का उदाहरण सबसे नया है। लेकिन यह विचारधारा पनपती वहीं है, जहाँ लोकतंत्र पूरी तरह असफल हो जाता है। जहाँ लोकतंत्र की परिधि के भीतर लोगों का जीवन असम्भव हो जाता है। तब माओवादी प्रवेश करते हैं और स्थानीय जनता के सुख-दुःख में भागी होकर अपनी ताकत बढ़ाते चलते हैं। भारत में भी नक्सलवाद/माओवाद के विकास का इतिहास इससे अलग नहीं है।
मगर मूल सवाल तो यह है कि अपनी क्षमताओं-सम्भावनाओं के बावजूद लोकतंत्र असफल क्यों होता है ? जब तक इस सवाल का हल नहीं ढूँढा जाता, सिर्फ फौजी तरीकों से नक्सलवाद को आमूल खत्म करना असम्भव है। हमारी आदत है कि हम मूल सवालों से कन्नी काटते हैं। आतंकवाद की चर्चा करते हुए हम यह कहने में हिचकिचाते हैं कि एक ऐसी कट्टरपंथी विचारधारा मौजूद है, जो मुसलमानों को चिढ़ाती और अपमानित करती हुई उन्हें कठमुल्लों के पाले में धकेलती है और उनके असंतोष को भुनाते हुए शत्रु देश उन्हें आतंकवाद की गिरफ्त में ले लेता है। जब तक इस विचारधारा का प्रभावी रूप से प्रतिकार नहीं किया जाता, तब तक आतंकवाद पर नियंत्रण करने की सोची भी नहीं जा सकती। ठीक इसी तरह हम साफ-साफ यह नहीं कहते कि जब तक लोकतंत्र का मतलब सिर्फ दस-पन्द्रह प्रतिशत लोगों के स्वार्थ सिद्ध करना होगा, सत्तर-अस्सी प्रतिशत जनता की बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जायेगा, तब तक नक्सलवाद/माओवाद पर नियंत्रण करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ये नक्सलवादी कैसे काम करते हैं ? जिसे उन्होंने लगातार कई दिन तक दंतेवाड़ा में माओवादियों के नियंत्रित इलाके में उन्हीं के साथ रहने के बाद लिखा है। यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जिसमें पहले वन विभाग और पुलिस द्वारा आदिवासियों के शोषण-दमन तथा अब प्राकृतिक सम्पदा की कॉरपोरेट जगत द्वारा लूट की विशद दास्तान है। गोंड आदिवासियों की पूरी परम्परागत जीवन प्रणाली को ही जरायम घोषित कर दिया गया। ‘‘जब भी उन्हें औरतों या मुर्गियों की जरूरत होती थी, वे हमारे यहाँ धावा बोले देते थे। फसलों को आग लगा जाते थे।’’ माओवादी बन चुकी एक आदिवासी औरत कहती है। माओवादियों ने उन्हें संरक्षण दिया, खेती की जमीनें दिलवाईं, विकास कार्य करवाये और त्वरित न्याय दिया। वे अभी भी पुलिस और फौज के एक स्थायी खतरे के बीच में जीते हैं, मगर उनका जीवन अपेक्षाकृत ज्यादा खुशहाल और दमन मुक्त हो गया है। क्यों नहीं बढ़ेगा माओवाद ? कई लोग अरुंधती और महाश्वेती देवी को खड़े-खड़े खारिज कर देते हैं कि ये तो नक्सलवादियों की हमदर्द हैं। मगर क्या ऐसा है ? पत्रकार प्रशान्त राही को माओवादी जोनल कमांडर बता कर देहरादून से गिरफ्तार किये जाने के बाद मैंने दो वर्ष पूर्व ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ के तहत प्रतिबंधित साहित्य और प्रतिबंधित संगठनों के बारे में कुछ जानकारी माँगी थी, जिसे काफी ना-नुकुर के बाद गृह विभाग से प्राप्त होने के बाद प्रकाशित किया था। उसी के आधार पर खबर बनाने के लिये जब देहरादून के एक पत्रकार ने उत्तराखंड पुलिस के मुखिया का पक्ष जानना चाहा तो बौखलाये हुए डी.जी.पी. का कहना था, ‘‘राजीव लोचन साह तो स्वयं माओवादीहै।’’ भौंचक्के हुए उस पत्रकार ने मुझे फोन किया, ‘‘सर, मेरे मुँह से तो आवाज ही नहीं निकल पायी।’’ ऐसा रवैया अब सामान्य है। अन्यथा डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को क्यों इतने लम्बे समय तक जेल में रखा गया ? दंतेवाड़ा में ‘वनवासी चेतना आश्रम’ चला रहे गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के आश्रम पर बुलडोजर क्या माओवादियों ने चलाया था ?
माओवादियों की नीति और इरादों की कोई सराहना नहीं करना चाहेगा, लेकिन यह तो हमें मानना ही पड़ेगा कि शासन की असफलता ने माओवाद को पैदा किया और अब शासन की हिंसा माओवादियों की हिंसा को भड़का रही है। पूरे देश को कॉरपोरेट जगत को बेच देने को कटिबद्ध मनमोहन सिंह या पी. चिदम्बरम शासन की हिंसा को जायज ठहरा सकते हैं। जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में रहने के कारण उन्हें तत्काल कोई खतरा नहीं है। उनके खून के रिश्ते के कोई लोग पुलिस या सेना में भर्ती होने नहीं जायेंगे। उन्हें मोटी पगार की नौकरियाँ देने के लिये ‘वेदान्ता’ जैसी कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। वे ही नहीं, इस लोकतंत्र की मलाई खाने वाले दिल्ली से लेकर गाँव स्तर तक फैले ठेकेदार इस समस्या का फौजी हल ढूँढने की ही हिमायत करेंगे। लेकिन इस रास्ते से या तो फौज को अपना कैरियर बनाने वाले गरीब घरों के नौजवान मारे जायेंगे या अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी। माओवाद तो खत्म होगा नहीं और जब वह लगातार फैलता हुआ पूरे देश को जकड़ लेगा तो शायद हमारे भाग्यविधाता देश को गृहयुद्ध में झुलसता छोड़ सपरिवार अमेरिका को पलायन कर जायेंगे।
हर जगह माओवाद के पनपने की सम्भावनायें मौजूद हैं। उत्तराखंड राज्य आन्दोलन में मुजफ्फरनगर कांड के अपराधी अभी दंडित नहीं हुए हैं। यदि कोई नौजवान शहीद उधमसिंह की तर्ज पर कानून अपने हाथ में लेकर स्वयं ऐसे अपराधी को मार डाले तो उसे हम क्या कहेंगे ? आतंकवादी या माओवादी ? बेरोजगार शिक्षकों से लेकर गुरिल्लों तक अनेक समूह यहाँ पर लगातार आन्दोलन कर रहे हैं। जल विद्युत परियोजनाओं से परेशान होकर हजारों ग्रामीण आन्दोलनरत हैं। जोशीमठ में पूरा चाईं गाँव ध्वस्त हो गया है। अभयारण्यों और जंगली जानवरों से खेती नष्ट हो गई है। जहाँ-तहाँ औरतें शराब के खिलाफ लड़ रही हैं। हर जगह समस्या को जड़ से निपटाने के बदले दमन का रास्ता अख्तियार किया जा रहा है। क्या कुछ लोगों को माओवादी घोषित कर गिरफ्तार करने से समाधान निकल आयेगा ? यदि जंगल में चिंगारी की तरह माओवाद फैल गया तो कोई भी फौज क्या कर लेगी ?अभी 27-28 मार्च को इलाहाबाद में हुई एक बैठक में मेधा पाटेकर, स्वामी अग्निवेश, डॉ. बनवारी लाल शर्मा, डॉ. बी.डी. शर्मा, डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट, अमरनाथ भाई, चुन्नी लाल वैद्य, प्रो. आनन्द मोहन, सुनील आदि जनांदोलनों से जुड़े दर्जनों लोगों ने बातचीत के जरिये इस समस्या को सुलझाने की अपील की है। देश के अनेक भागों से संयम बरतने की अपीलें आ रही हैं। लेकिन शासन तो देश को गृहयुद्ध में झोंकने को तत्पर है ही, मीडिया भी रणभेरी बजा रहा है। जब मीडिया इतनी बेशर्मी से सरकार के साथ ‘हमबिस्तर’ हो जाये तो अपने पत्रकार होने पर भी शर्म आने लगती है। इन्दिरा गांधी द्वारा लगाई गई ‘इमर्जेंसी’ के दौरान लोग सच्चाई जानने के लिये बी.बी.सी. सुनते थे। कैसा आश्चर्य है कि सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं और दर्जनों न्यूज चैनलों की मौजूदगी के बावजूद अब लोग फिर से बी.बी.सी सुनने लगे हैं।
जरा ठंडे दिमाग से सोचें कि इस हिंसा को हम कैसे खत्म करें!

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