Thursday, July 29, 2010

उत्तराखंड में सामने आया 400 करोड़ का घोटाला

ऋषिकेश। देवभूमि ऋषिकेश में गंगा नदी से कुछ ही दूरी पर बड़े जोरशोर से निर्माण कार्य चल रहा है। यहां रिहायशी कॉलोनी बसाई जाएगी लेकिन इस रिहायशी कॉलोनी के निर्माण के पीछे छुपा है उत्तराखंड का ऐसा जमीन घोटाला जिसे चुपचाप बहुत ही चालाकी से अंजाम दिया गया। करीब 400 करोड़ रुपए के इस घोटाले में शामिल हैं सत्ता से जुड़े रसूखदार लोग। यहां प्राइवेट रिहायशी कॉलोनी बनेगी लेकिन जमीन है सरकार की। सबसे चौंकाने वाली बात ये कि इस रिहायशी कॉलोनी को बसाया जा रहा है सालों से बंद पड़ी केमिकल फैक्टरी को शुरू करने के नाम पर।

दरअसल 1964 में कई एकड़ में फैली इस जमीन को उत्तर प्रदेश सरकार ने जाने-माने उद्योगपति नोरजी वाडिया को कैल्शियम कार्बोनेट बनाने वाली फैक्टरी के लिए दिया था। 2007 तक कंपनी पर नौरजी वाडिया और उनके परिवार का अधिकार था। 2002 में कंपनी को बीमार घोषित किए जाने के बाद से ही नौरजी वाडिया इसे दोबारा जिंदा करने के लिए इस जमीन के 15 एकड़ हिस्से को बेचने की सरकार से अनुमति मांग रहे थे लेकिन उनकी दाल नहीं गली।

जमीन सरकारी थी और इसे कंपनी को सिर्फ कैल्शियम कार्बोनेट के उत्पादन के लिए दिया गया था इसलिए सरकार ने 1964 में हुए एग्रीमेंट का हवाला देकर इनकार कर दिया। इसपर कंपनी 2005 में बीआईएफआर यानि बोर्ड आफ इंडस्ट्रियल फाइनेंस रिकन्सट्रक्शन की शरण में गई। जनवरी 2007 में बीआईएफआर ने कंपनी के प्रस्ताव को मान लिया। बीआईएफआर के आदेश के मुताबिक कंपनी को 14 महीने के भीतर जमीन बेचकर फैक्टरी को दोबारा शुरू करना था। मगर इसी बीच अचानक कंपनी का मैनेजमेंट बदला और मई 2008 में बीआईएफआर ने अपने पुराने फैसले पर रोक लगा दी। बीआईएफआर का कहना था कि ये फैसला पुराने मैनेजमेंट के लिए था। नए मैनेजमेंट पर ये फैसला लागू नहीं होता।

इसके बावजूद सरकार ने जून 2008 में कंपनी को जमीन बेचने की इजाजत दे डाली। केमिकल फैक्टरी के पास रिहायशी कॉलोनी नहीं बसाई जा सकती लेकिन बीआईएफआर के 2007 के फैसले को आधार बनाकर सरकार ने उसके लिए भी हरी झंडी दे दी। वही फैसला जिस पर बीआईएफआर ने एक महीने पहले ही रोक लगा दी थी लेकिन सरकार की दलील है कि उसे रोक के बारे में पता ही नहीं था। सरकार के मीडिया सलाहकार डॉक्टर देवेंद्र भसीन कहते हैं कि हमारे द्वारा उपलब्ध कराए गए कागजात पर अब वे अलर्ट हो गए हैं और नोटिस भेजकर निर्माण कार्य पर रोक लगा दी गई है।

बताया जाता है कि संघ और बीजेपी नेताओं ने कंपनी को टेकओवर किया है। उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए 26 सितंबर 2009 को बाबू से लेकर कई विभागों के सचिव और मुख्यमंत्री तक ने सिर्फ एक दिन के अंदर जमीन को बेचने की इजाजत दे दी। यही नहीं 1 अक्टूबर, 2009 को मुख्यमंत्री ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर डेढ़ सौ करोड़ रुपए की लैंड यूज फीस भी माफ कर दी।

Wednesday, July 21, 2010

माँ अंजना ने तप करके हनुमान जैसे पुत्र को पाया था।


माँ अंजना ने तप करके हनुमान जैसे पुत्र को पाया था। वे हनुमानजी में बाल्यकाल से ही भगवदभक्ति के संस्कार डाला करती थीं, जिसके फलस्वरूप हनुमानजी में श्रीराम-भक्ति का प्रादुर्भाव हो गया। आगे चलकर वे प्रभु के अनन्य सेवक के रूप में प्रख्यात हुए – यह तो सभी जानते हैं।

भगवान श्री राम रावण का वध करके माँ सीता, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, जांबवत आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे। मार्ग में हनुमान जी ने श्रीरामजी से अपनी माँ के दर्शन की आज्ञा माँगी कि "प्रभु ! अगर आप आज्ञा दें तो मैं माता जी के चरणों में मत्था टेक आऊँ।"

श्रीराम ने कहाः "हनुमान ! क्या वे केवल तुम्हारी ही माता हैं? क्या वे मेरी और लखन की माता नहीं हैं? चलो, हम भी चलते हैं।"

पुष्पक विमान किष्किंधा से अयोध्या जाते-जाते कांचनगिरि की ओर चल पड़ा और कांचनगिरी पर्वत पर उतरा। श्रीरामजी स्वयं सबके साथ माँ अंजना के दर्शन के लिए गये।

हनुमानजी ने दौड़कर गदगद कंठ एवं अश्रुपूरित नेत्रों से माँ को प्रणाम किया। वर्षों बाद पुत्र को अपने पास पाकर माँ अंजना अत्यंत हर्षित होकर हनुमान का मस्तक सहलाने लगीं।

माँ का हृदय कितना बरसता है यह बेटे को कम ही पता होता है। माता-पिता का दिल तो माता-पिता ही जानें !

माँ अंजना ने पुत्र को हृदय से लगा लिया। हनुमान जी ने माँ को अपने साथ ये लोगों का परिचय दिया कि 'माँ ! ये श्रीरामचन्द्रजी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं। ये जांबवंत जी हैं, ये माँ सीताजी हैं और ये लखन भैया हैं। ये जांबवत जी हैं.... आदि आदि।

भगवान श्रीराम को देखकर माँ अंजना उन्हें प्रणाम करने जा ही रही थीं कि श्रीरामजी ने कहाः "माँ ! मैं दशरथपुत्र राम आपको प्रणाम करता हूँ।"

माँ सीता व लक्ष्मण सहित बाकी के सब लोगों ने भी उनको प्रणाम किया। माँ अंजना का हृदय भर आया। उन्होंने गदगद कंठ एवं सजल नेत्रों से हनुमान जी से कहाः "बेटा हनुमान ! आज मेरा जन्म सफल हुआ। मेरा माँ कहलाना सफल हुआ। मेरा दूध तूने सार्थक किया। बेटा ! लोग कहते हैं कि माँ के ऋण से बेटा कभी उऋण नहीं हो सकता लेकिन मेरे हनुमान ! तू मेरे ऋण से उऋण हो गया। तू तो मुझे माँ कहता ही है किंतु आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी मुझे 'माँ' कहा है ! अब मैं केवल तुम्हारी ही माँ नहीं, श्रीराम, लखन, शत्रुघ्न और भरत की भी माँ हो गयी, इन असंख्य पराक्रमी वानर-भालुओं की भी माँ हो गयी। मेरी कोख सार्थक हो गयी। पुत्र हो तो तेरे जैसा हो जिसने अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया और जिसके कारण स्वयं प्रभु ने मेरे यहाँ पधार कर मुझे कृतार्थ किया।"

हनुमानजी ने फिर से अपनी माँ के श्रीचरणों में मत्था टेका और हाथ जोड़ते हुए कहाः "माँ ! प्रभु जी का राज्याभिषेक होनेवाला था परंतु मंथरा ने कैकेयी को उलटी सलाह दी, जिससे प्रभुजी को 14 वर्ष का बनवास एवं भरत को राजगद्दी मिली राजगद्दी अस्वीकार करके भरतजी उसे श्रीरामजी को लौटाने के लिए आये लेकिन पिता के मनोरथ को सिद्ध करने के लिए भाव से प्रभु अयोध्या वापस न लौटे।

माँ ! दुष्ट रावण की बहन शूर्पणखा प्रभुजी से विवाह के लिए आग्रह करने लगी किंतु प्रभुजी उसकी बातों में नहीं आये, लखन जी भी नहीं आये और लखन जी ने शूर्पणखा के नाक कान काटकर उसे दे दिये। अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए दुष्ट रावण ब्राह्मण का रूप लेकर माँ सीता को हरकर ले गया।

करूणानिधान प्रभु की आज्ञा पाकर मैं लंका गया और अशोक वाटिका में बैठी हुई माँ सीता का पता लगाया तथा उनकी खबर प्रभु को दी। फिर प्रभु ने समुद्र पर पुल बँधवाया और वानर-भालुओं को साथ लेकर राक्षसों का वध किया और विभीषण को लंका का राज्य देकर प्रभु माँ सीता एवं लखन के साथ अयोध्या पधार रहे हैं।"

अचानक माँ अंजना कोपायमान हो उठीं। उन्होंने हनुमान को धक्का मार दिया और क्रोधसहित कहाः "हट जा, मेरे सामने। तूने व्यर्थ ही मेरी कोख से जन्म लिया। मैंने तुझे व्यर्थ ही अपना दूध पिलाया। तूने मेरे दूध को लजाया है। तू मुझे मुँह दिखाने क्यों आया?"

श्रीराम, लखन भैयासहित अन्य सभी आश्चर्यचकति हो उठे कि माँ को अचानक क्या हो गया? वे सहसा कुपित क्यों हो उठीं? अभी-अभी ही तो कह रही थीं कि 'मेरे पुत्र के कारण मेरी कोख पावन हो गयी.... इसके कारण मुझे प्रभु के दर्शन हो गये....' और सहसा इन्हें क्या हो गया जो कहने लगीं कि 'तूने मेरा दूध लजाया है।'

हनुमानजी हाथ जोड़े चुपचाप माता की ओर देख रहे थे। सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयो पिता.... माता सब तीर्थों की प्रतिनिधि है। माता भले बेटे को जरा रोक-टोक दे लेकिन बेटे को चाहिए कि नतमस्तक होकर माँ के कड़वे वचन भी सुन लें। हनुमान जी के जीवन से यह शिक्षा अगर आज के बेटे-बेटियाँ ले लें तो वे कितने महान हो सकते हैं !

माँ की इतनी बातें सुनते हुए भी हनुमानजी नतमस्तक हैं। वे ऐसा नहीं कहते कि 'ऐ बुढ़िया ! इतने सारे लोगों के सामने तू मेरी इज्जत को मिट्टी में मिलाती है? मैं तो यह चला....'

आज का कोई बेटा होता तो ऐसा कर सकता था किंतु हनुमानजी को तो मैं फिर-फिर से प्रणाम करता हूँ। आज के युवान-युवतियाँ हनुमानजी से सीख ले सकें तो कितना अच्छा हो?

मेरे जीवन में मेरे माता-पिता के आशीर्वाद और मेरे गुरुदेव की कृपा ने क्या-क्या दिया है उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता हूँ। और भी कइयों के जीवन में मैंने देखा है कि जिन्होंने अपनी माता के दिल को जीता है, पिता के दिल की दुआ पायी है और सदगुरु के हृदय से कुछ पा लिया है उनके लिए त्रिलोकी में कुछ भी पाना कठिन नहीं रहा। सदगुरु तथा माता-पिता के भक्त स्वर्ग के सुख को भी तुच्छ मानकर परमात्म-साक्षात्कार की योग्यता पा लेते हैं।

माँ अंजना कहे जा रही थीं- "तुझे और तेरे बल पराक्रम को धिक्कार है। तू मेरा पुत्र कहलाने के लायक ही नहीं है। मेरा दूध पीने वाले पुत्र ने प्रभु को श्रम दिया? अरे, रावण को लंकासहित समुद्र में डालने में तू समर्थ था। तेरे जीवित रहते हुए भी परम प्रभु को सेतु-बंधन और राक्षसों से युद्ध करने का कष्ट उठाना पड़ा। तूने मेरा दूध लज्जित कर दिया। धिक्कार है तुझे ! अब तू मुझे अपना मुँह मत दिखाना।"

हनुमानजी सिर झुकाते हुए कहाः "माँ ! तुम्हारा दूध इस बालक ने नहीं लजाया है। माँ ! मुझे लंका भेजने वालों ने कहा था कि तुम केवल सीता की खबर लेकर आओगे और कुछ नहीं करोगे। अगर मैं इससे अधिक कुछ करता तो प्रभु का लीलाकार्य कैसे पूर्ण होता? प्रभु के दर्शन दूसरों को कैसे मिलते? माँ ! अगर मैं प्रभु-आज्ञा का उल्लंघन करता तो तुम्हारा दूध लजा जाता। मैंने प्रभु की आज्ञा का पालन किया है माँ ! मैंने तेरा दूध नहीं लजाया है।"

तब जाबवंतजी ने कहाः "माँ ! क्षमा करें। हनुमानजी सत्य कह रहे हैं। हनुमानजी को आज्ञा थी कि सीताजी की खोज करके आओ। हम लोगों ने इनके सेवाकार्य बाँध रखे थे। अगर नहीं बाँधते तो प्रभु की दिव्य निगाहों से दैत्यों की मुक्ति कैसे होती? प्रभु के दिव्य कार्य में अन्य वानरों को जुड़ने का अवसर कैसे मिलता? दुष्ट रावण का उद्धार कैसे होता और प्रभु की निर्मल कीर्ति गा-गाकर लोग अपना दिल पावन कैसे करते? माँ आपका लाल निर्बल नहीं है लेकिन प्रभु की अमर गाथा का विस्तार हो और लोग उसे गा-गाकर पवित्र हों, इसीलिए तुम्हारे पुत्र की सेवा की मर्यादा बँधी हुई थी।"

श्रीरामजी ने कहाः "माँ ! तुम हनुमान की माँ हो और मेरी भी माँ हो। तुम्हारे इस सपूत ने तुम्हारा दूध नहीं लजाया है। माँ ! इसने तो केवल मेरी आज्ञा का पालन किया है, मर्यादा में रहते हुए सेवा की है। समुद्र में जब मैनाक पर्वत हनुमान को विश्राम देने के लिए उभर आया तब तुम्हारे ही सुत ने कहा था।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।

मेरे कार्य को पूरा करने से पूर्व तो इसे विश्राम भी अच्छा नहीं लगता है। माँ ! तुम इसे क्षमा कर दो।"

रघुनाथ जी के वचन सुनकर माता अंजना का क्रोध शांत हुआ। फिर माता ने कहाः

"अच्छा मेरे पुत्र ! मेरे वत्स ! मुझे इस बात का पता नहीं था। मेरा पुत्र, मर्यादा पुरुषोत्तम का सेवक मर्यादा से रहे – यह भी उचित ही है। तूने मेरा दूध नहीं लजाया है, वत्स !"

इस बीच माँ अंजना ने देख लिया कि लक्ष्मण के चेहरे पर कुछ रेखाएँ उभर रही हैं कि 'अंजना माँ को इतना गर्व है अपने दूध पर?' माँ अंजना भी कम न थीं। वे तुरंत लक्ष्मण के मनोभावों को ताड़ गयीं।

"लक्ष्मण ! तुम्हें लगता है कि मैं अपने दूध की अधिक सराहना कर रही हूँ, किंतु ऐसी बात नहीं है। तुम स्वयं ही देख लो।" ऐसा कहकर माँ अंजना ने अपनी छाती को दबाकर दूध की धार सामनेवाले पर्वत पर फेंकी तो वह पर्वत दो टुकड़ों में बँट गया ! लक्ष्मण भैया देखते ही रह गये। फिर माँ ने लक्ष्मण से कहाः "मेरा यही दूध हनुमान ने पिया है। मेरा दूध कभी व्यर्थ नहीं जा सकता।"

हनुमानजी ने पुनः माँ के चरणों में मत्था टेका। माँ अंजना ने आशीर्वाद देते हुए कहाः "बेटा ! सदा प्रभु को श्रीचरणों में रहना। तेरी माँ ये जनकनंदिनी ही हैं। तू सदा निष्कपट भाव से अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक परम प्रभु श्री राम एवं माँ सीताजी की सेवा करते रहना।"

कैसी रही हैं भारत की नारियाँ, जिन्होंने हनुमानजी जैसे पुत्रों को जन्म ही नहीं दिया बल्कि अपनी शक्ति तथा अपने द्वारा दिये गये संस्कारों पर भी उनका अटल विश्वास रहा। आज की भारतीय नारियाँ इन आदर्श नारियों से प्रेरणा पाकर अपने बच्चों में हनुमानजी जैसे सदाचार, संयम आदि उत्तम संस्कारों का सिंचन करें तो वह दिन दूर नहीं, जिस दिन पूरे विश्व में भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति की दिव्य पताका पुनः लहरायेगी।

ईर्ष्या-द्वेष और अति धन-संग्रह से मनुष्य अशांत होता है।



ईर्ष्या-द्वेष और अति धन-संग्रह से मनुष्य अशांत होता है। ईर्ष्या-द्वेष की जगह पर क्षमा और सत्प्रवृत्ति का हिस्सा बढ़ा दिया जाय तो कितना अच्छा !

दुर्योधन ईर्ष्यालु था, द्वेषी था। उसने तीन महीने तक दुर्वासा ऋषि की भली प्रकार से सेवा की, उनके शिष्यों की भी सेवा की। दुर्योधन की सेवा से दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हो गये और बोलेः

"माँग ले वत्स ! जो माँगना चाहे माँग ले।"

जो ईर्ष्या और द्वेष के शिकंजे में आ जाता है, उसका विवेक उसे साथ नहीं देता लेकिन जो ईर्ष्या-द्वेष रहित होता है उसका विवेक सजग रहता है वह शांत होकर विचार या निर्णय करता है। ऐसा व्यक्ति सफल होता है और सफलता के अहं में गरक नहीं होता। कभी असफल भी हो गया तो विफलता के विवाद में नहीं डूबता। दुष्ट दुर्योधन ने ईर्ष्या एवं द्वेष के वशीभूत होकर कहाः

"मेरे भाई पाण्डव वन में दर-दर भटक रहे हैं। उनकी इच्छा है कि आप अपने हजार शिष्यों के साथ उनके अतिथी हो जायें। अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे भाइयों की इच्छा पूरी करें लेकिन आप उसी वक्त उनके पास पहुँचियेगा। जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो।"

दुर्योधन जानता था कि "भगवान सूर्य ने पाण्डवों को अक्षयपात्र दिया है। उसमें से तब तक भोजन-सामग्री मिलती रहती है, जब तक द्रौपदी भोजन न कर ले। द्रौपदी भोजन करके पात्र को धोकर रख दे फिर उस दिन उसमें से भोजन नहीं निकलेगा। अतः दोपहर के बाद जब दुर्वासाजी उनके पास पहुँचेगे, तब भोजन न मिलने से कुपित हो जायेंगे और पाण्डवों को शाप दे देंगे। इससे पाण्डव वंश का सर्वनाश हो जायेगा।"

इस ईर्ष्या और द्वेष से प्रेरित होकर दुर्योधन ने दुर्वासाजी की प्रसन्नता का लाभ उठाना चाहा।

दुर्वासा ऋषि मध्याह्न के समय जा पहुँचे पाण्डवों के पास। युधिष्ठिर आदि पाण्डव एवं द्रौपदी दुर्वासाजी को शिष्यों समेत अतिथि के रूप में आया हुआ देखकर चिन्तित हो गये। फिर भी बोलेः "विराजिये महर्षि ! आपके भोजन की व्यवस्था करते हैं।"

अंतर्यामी परमात्मा सबका सहायक है, सच्चे का मददगार है। दुर्वासाजी बोलेः "ठहरो ठहरो.... भोजन बाद में करेंगे। अभी तो यात्रा की थकान मिटाने के लिए स्नान करने जा रहा हूँ।"

इधर द्रौपदी चिन्तित हो उठी कि अब अक्षयपात्र से कुछ न मिल सकेगा और इन साधुओं को भूखा कैसे भेजें? उनमें भी दुर्वासा ऋषि को ! वह पुकार उठीः "हे केशव ! हे माधव ! हे भक्तवत्सल ! अब मैं तुम्हारी शरण में हूँ...." शांत चित्त एवं पवित्र हृदय से द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का चिन्तन किया। भगवान श्रीकृष्ण आये और बोलेः "द्रौपदी ! कुछ खाने को तो दो !"

द्रौपदीः "केशव ! मैंने तो पात्र को धोकर रख दिया है।"

श्री कृष्णः "नहीं, नहीं... लाओ तो सही ! उसमें जरूर कुछ होगा।"

द्रौपदी ने पात्र लाकर रख दिया तो दैवयोग से उसमें तांदुल के साग का एक पत्ता बच गया था। विश्वात्मा श्रीकृष्ण ने संकल्प करके उस तांदुल के साग का पत्ता खाया और तृप्ति का अनुभव किया तो उन महात्माओं को भी तृप्ति का अनुभव हुआ वे कहने लगे किः "अब तो हम तृप्त हो चुके हैं, वहाँ जाकर क्या खायेंगे? युधिष्ठिर को क्या मुँह दिखायेंगे?"

शातं चित्त से की हुई प्रार्थना अवश्य फलती है। ईर्ष्यालु एवं द्वेषी चित्त से तो किया-कराया भी चौपट हो जाता है जबकि नम्र और शांत चित्त से तो चौपट हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है और हृदय धन्यता से भर जाता है।

Friday, July 16, 2010

उत्तराखंड की चार धाम यात्रा

उत्तराखंड की चार धाम यात्रा

नई टिहरी गढ़वाल। चारधाम यात्रा के लिए अब कुछ ही समय शेष रह गया है। इस साल से यात्रा काल के दौरान सभी वाहनों का संचालन चम्बा वाया नई टिहरी से होगा। मास्टर प्लान नई टिहरी नगर के यात्रा मार्ग से जुड़ने से लगता है कि अब इस शहर की रौनक लौट आएगी। साथ ही शहर को पर्यटन नगरी के रूप में भी अलग पहचान मिलेगी।

अभी तक चारधाम यात्रा में वाहन चम्बा से उत्तरकाशी और सीधा घनसाली होकर केदारनाथ व बदरीनाथ निकल जाते थे। इस कारण नई टिहरी शहर यात्रा मार्ग से अलग-थलग पड़ गया था। पहले ही नई टिहरी शहर में अन्य शहरों की भांति रौनक नहीं दिखाई देती है और इसके यात्रा मार्ग से अलग-थलग होने के कारण यात्रा काल में यहां कोई चहल-पहल न दिखती और ना ही यहां पर यात्रियों की आवाजाही रहती। जन प्रतिनिधि लगातार नई टिहरी शहर को पर्यटन नगर के रूप में विकसित करने की उठाते रहे। शहर के महत्व को देखते हुए पिछले दिन नई टिहरी पहुंचे प्रदेश के परिवहन मंत्री बंशीधर भगत ने कहा था कि नई टिहरी शहर को पर्यटन के रूप में पहचान दिलाने के लिए इस बार से यात्रा के दौरान सभी वाहनों का संचालन चम्बा-नई टिहरी से किया जाएगा। इस निर्णय को नगरवासियों व व्यापारियों ने सराहनीय कदम बताया है। लोगों का कहना है कि नई टिहरी शहर को पहचान दिलाने के लिए इसका यात्रा मार्ग से जुड़ना जरूरी था।

व्यापारिक दृष्टि से पुरानी टिहरी की अपेक्षा नई टिहरी नगर की स्थिति काफी कमजोर है। यहां पर व्यापारियों को ग्राहकों का इंतजार रहता है, लेकिन इस साल से यदि यात्रा सीजन में बसों का संचालन नई टिहरी से होता है तो इससे न केवल शहर की रौनक बढ़ेगी, बल्कि व्यापारियों को भी इजाफा होगा। व्यापारी मदन सिंह चौहान, सूर्यमणी उनियाल, विजयपाल भंडारी का कहना है कि यह एक सराहनीय पहल है। इससे नगर में चहल-पहल तो बढ़ेगी ही व्यापारियों को भी इसका पूरा लाभ मिलेगा।

Thursday, July 15, 2010

2012 में नंदा देवी राजजात की तैयारिया

2012 में नंदा देवी राजजात की तैयारिया



दो साल बाद सन 2012 में होने वाले उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक महोत्सव नंदा देवी राजजात की तैयारिया

ं अभी से शुरू हो गई हैं। यह लोक महोत्सव हर बारह साल बाद होता है। इसमें देश-विदेश से भी हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। नंदा देवी राजजात समिति ने मुख्यमंत्री को इस आयोजन के लिए अलग से राजजात प्राधिकरण गठित करने का प्रस्ताव भेजा है, ताकि राजजात में शामिल होने वाले हजारों लोगों को राजजात के कठिन रास्तों में बेहतर सुविधाएं मिलें और राज्य के इस प्रमुख धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन की पहचान पूरी दुनिया में बने। गौरतलब है कि नंदा देवी राजजात में हर 12 साल बाद हजारों की तादाद में लोग हिमालय के बुग्यालों और हिम शिखरों की यात्रा करते हैं।

इसमें दुनिया की रहस्यमयी झीलों में से एक रूपकुंड समेत 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित ज्यूरांगली दर्रा भी शामिल है। इस दर्रे को पार करने के लिए हिमालय के त्रिशूल पर्वत के पास से होकर गुजरना पड़ता है। अधिकतर आम और पर्वतारोहण से अनजान लोग यह यात्रा करते हैं, ऐसे में दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। पूर्व राजजात समिति के सचिव रहे भुवन नौटियाल कहते हैं कि इस बार यात्रियों की संख्या बढे़गी। इस वजह से अभी से ही इन स्थानों में आवाजाही और अन्य सुविधाओं के विस्तार के लिए प्रयास करने होंगे।

इस यात्रा में लोग नौटी से चार सींग वाले मेढ़े के लेकर नंदीकुंड तक जाते हैं। कई दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में चार सींग वाले मेढ़े की अगुवाई में देव यात्राएं निकाली जाती हैं। इस दौरान तकरीबन 21 जगह पड़ाव डालने के बाद यह यात्रा हिमालय के हिमाच्छादित पर्वत की जड़ पर स्थित नंदीकुंड मंेे संपन्न होती है। नंदा देवी को पार्वती का रूप माना जाता है। उन्हें शिव के पास कैलाश पर्वत तक विदा करने के लिए यह यात्रा उत्सव के रूप में मनाई जाती है। इसमें कई गांव से देव डोलियां निकलती हैं। इन्हें जात कहा जाता है। ये छोटी-बड़ी देव डोलियां नौटी से निकलने वाली चार सींग वाले मेढ़े के साथ मिलते हुए हिमालय पहुंचती हैं।

यह आयोजन गढ़वाल के राज परिवारों की ओर से शुरू किया गया था। अब उनके वंशज गढ़वाल के राजाओं के चांदपुर गढ़ी महल के पास कांसूवा गांव में रहते हैं। यात्रा इसी गांव के पास नौटी में नंदा के मंदिर से शुरू होती है। नंदा राजजात के आयोजन में प्रमुख भुमिका निभाने वाले भुवन नौटियाल ने बताया कि राजजात के आयोजन के लिए पहले मांडवी मनौती मेले का आयोजन 23-24 मार्च को उपरायीं देवी के मंदिर में होगा। यह मेला मांडवी मनौती के बाद इस साल दिसंबर में होगा। उसी दिन नंदा देवी राजजात 2012 का कार्यक्रम भी तय किया जा एगी।

खैरलिंग मेला कल्जीखाल क्षेत्र

खैरलिंग मेले

पौड़ी के निकट कल्जीखाल क्षेत्र में दो दिन के खैरलिंग मेले पर इस वर्ष प्रशासन, स्थानीय निवासियों, पशुबलि का विरोध करने वाली संस्था बिजाल से लेकर राजनीतिक दलों की भी नजर थी। सब इसी असमंजस में थे कि क्या इस वर्ष भी भैंसों की बलि दी जायेगी। वर्ष 2005 की घटना से प्रशासन चौंकन्ना था जब बलि प्रथा को रोकने के लिये गयी पुलिस को अपनी जान बचा कर भागना पड़ा और डीएसपी साहब को मुंडनेश्वर महादेव के मंदिर में ग्रामीणों द्वारा बँधक बना लिया गया। लगभग दो दर्जन ग्रामीणों पर मुकदमा चला, लेकिन गवाहों के बंधक होने के कारण यह मामला रफा-दफा हो गया। न्यायालय का भी मानना था कि इस प्राचीन परंपरा को बंद करवाने के लिये क्षेत्रवासियों से वार्तालाप कर जागृति पैदा करने की आवश्यकता है।

प्रशासन की सब से बड़ी परेशानी का सबब पशुबलि का विरोध कर रही ‘बिजाल’ संस्था थी कि कहीं तनाव उग्र न हो जाये। अतः मेला क्षेत्र में दो दिन पहले ही तीन दिन के लिये धारा 144 लगा दी गयी। कुछ स्थानीय लोगों को चिन्हित भी कर लिया गया, जो आग में घी डालने का काम कर सकते थे। हूटर बजाती राजस्व विभाग की गाड़ियों और पीएसी की तैनाती से कल्जीखाल क्षेत्र में माहौल सहमा-सहमा सा था।

लेकिन क्षेत्र में धारा 144 के बावजूद 2 जून को दर्जनों बकरों की बलि दी गयी, जिसका विरोध किसी ने भी नहीं किया और मेले के दिन भारी भीड़ जुटी। सुला व थैर गाँव से एक-एक भैंसे को बलि के लिये भी लाया गया। पशुबलि विरोधी संस्था ने मुंडनेश्वर महादेव मंदिर से सुरक्षित दूरी बनाये रखने में ही भलाई समझी। ‘बिजाल’ संस्था का यह रवैया प्रशासन को भी रास आया। वह भी मंदिर से दूर सरकारी गाड़ियों में बैठे मोबाइल पर ग्रामीणों से संपर्क बनाने की नाकाम कोशिश करते रहे। हालांकि संस्था की अध्यक्ष सरिता नेगी का कहना था कि प्रशासन ने बलि रोकने के बदले उन्हें ही मंदिर से काफी दूर रोक लिया। बहरहाल दो भैंसो की बलि को रोका न जा सका और सब मूक दर्शक बने रहे। कल्जीखाल ब्लॉक के कुछ जनप्रतिनिधियों का कहना था कि पशुबलि विरोधी संस्थायें यदि इस बलि को रोकने का पहले से प्रयास करतीं तो शायद दो नर भैंसों की बलि न दी जाती। सभी पक्षों ने एक दूसरे पर मेले में बलि के नाम पर राजनीति करने और सुर्खियाँ बटोरने का आरोप लगाया।

बजरंग दल ने एक ज्ञापन जिलाधिकारी को दिया जिसमें पशु क्रू्रता कानून 1960, धारा 28 का हवाला देते हुए मेले में धारा 144 लगाये जाने को अनुचित ठहराया गया है। धारा 28 के अर्न्तगत धार्मिक अनुष्ठानों के लिये प्रतिबंधित पशुओं को छोड़ अन्य पशुओं की बलि कानूनी अपराध नहीं है। बजरंग दल के प्रान्तीय कार्यकारिणी के सदस्य अमित सजवाण का कहना है कि अन्य धर्मों के त्योहारों में जब पशुबलि होती है, तब ये संस्थायें क्यों मूक बनी रहती हैं ?

चंद्रबदनी मंदिर, कांड़ा और पौड़ी के आसपास कई ऐसे मंदिर हैं, जहाँ बलि प्रथा अब पूर्णतया समाप्त हो चुकी है। मुंडेश्वर महादेव मंदिर के निकट देवी के मंदिर में भी नर भैसों की बलि की संख्या में भी वक्त के साथ काफी कमी आयी है। भविष्य में शायद यह कुप्रथा यहाँ भी समाप्त हो जाये।

अक्सर गाँववासियों को बलि के प्रति शिक्षित करने की बात कही जाती है, लेकिन पिछले वर्ष बूँखाल में कालिंका देवी के मंदिर में दर्जनों नर भैंसों की बलि में पहाड़ों से पलायन कर चुके ज्यादा जागृत और समृद्ध परिवारों की भागीदारी स्थानीय निवासियों की अपेक्षा कहीं अधिक थी।