Friday, May 21, 2010

कोई ग्रामीणों को विकास की परिभाषा तो समझाये

कोई ग्रामीणों को विकास की परिभाषा तो समझाये



जोशीमठ के निकट हिमालय की वादियों में बसे खूबसूरत गांव सलूड़ डूंग्रा का एक दिन का रम्माण मेला यूनेस्को द्वारा विश्व सांस्कृतिक धरोहर धोषित होने के बाद से आजकल सुर्खियों में है। गांव में मकान दूर-दूर हैं, खूब खेती है और गॉव के शीर्ष से घना जंगल शुरू हो जाता है। शहरों की भीड़-भाड़ और शोर-शराबे से दूर इस गाँव में खुलेपन और सुकून का एहसास होता है। गाँव के खेतों के बीच छोटी सी बलखाती पगड़ंड़ी से होते हुए मैं अपने एक साथी के साथ जंगल की तरफ चल पड़ा। मुख्य गाँव से काफ़ी ऊपर चढ़ कर पेड़ों की झुरमुट के बीच एक पुराना मकान नज़र आया। पठाल की छत और खुला सा पठाल का चौक देख कदम वहीं थम गये। पास ही आलू के खेत में गुड़ाई कर रही एक महिला ने हमें फोटो खींचता देखा तो हमारी ओर चली आयी। अभिवादन हुआ और एक प्याली चाय का न्यौता भी मिला। ऐसा लगा मानो मन की मुराद पूरी हो गयी हो। चाय देकर वो महिला एकटक जंगल की ओर ताकती रही। उसे जंगल में लकड़ी के लिये अकेले गये अपने 12 साल के लाड़ले का इन्तज़ार था। माँ के साथ-साथ अब हमारी नजरें भी उसे ढूंढने लगी क्योंकि इन जंगलों में भालू के कारण वो महिला कुछ पल पहले हमें भी जाने से रोक रही थी। सब का इन्तज़ार खत्म हुआ और दूर से पीठ पर लकड़ी का गट्ठर लिये एक छोटा सा लड़का नज़र आया। दूर से ही कुछ अजनबियों को अपने घर के चौक में बैठे देख उसने अपने चेहरे पर पहना काला चश्मा उतार कर सिर पर लगा लिया। जिम्मेदारियों का बोझ के साथ-साथ आज के युग से भी कदम मिला कर चलने की ललक उसके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी। उस प्यारे से मासूम बच्चे को सुरक्षित घर लौटता देख हमारा इन्तज़ार तो एक पल को ख़त्म हो गया लेकिन रोज़ यह नन्हा ऐसे ही जोखिम उठाता है और दिल पर पत्थर रख कर हर दिन यह माँ उसका इन्तज़ार करती है।
मकान के आसपास खेतों को देख मैंने पूछा कि आलू आपके यहाँ बहुत होता है तो उस महिला ने बोझिल स्वर में उत्तर दिया कि होता तो है लेकिन हमसे पहले उसे जंगली सूअर निकाल लेते हैं और कई बार तो जो आलू का बीज बोते हैं वो भी हाथ नहीं लगता। गाँव में राजमा और दाल का भी उत्पादन होता है लेकिन सबकुछ जंगली जीवों और मौसम के रहमोकरम पर रहता है बस इतना ही बच पाता है कि किसी तरह परिवार की कुछ महीनों तक गुज़र बसर हो सके।
इस मकान से लगभग 200 मी0 दूर जंगल में गाँव का घराट (पनचक्की) है। प्राकृतिक स्त्रोत से चलने वाले इस घराट का हर पुरजा और हिस्सा गाँव में ही तैयार किया गया है। घराट की देखभाल गाँव का एक युवक करता है जिसे इसके एवज़ में पिसाई का कुछ हिस्सा मिलता है। इस घराट पर भी चौंकन्ना रहना पड़ता है क्योंकि यह घना जंगल और बीच से बहता पानी भालू की पसंदीदा जगह है। भालू अक्सर इस घराट पर पिसे अनाज व दालों के बिखरे कणों को चाटने आता है और पूरे घराट में तोड़-फोड़ मचा देता है। घास और पठाल से बनी घराट की छत को भालू इतनी बार उजाड़ चुका है कि उसकी जगह अब पतली पॉलिथीन की पन्नी ने ले ली है जिसे बदलते-बदलते भी अब लोग थक चुके हैं।
पानी के लिये गाँव प्राकृतिक स्रोत पर निर्भर है जिसके लिये हर रोज़ दिन में कई बार लंबा सफर तय करना पड़ता है। खड़ी चट्टानों से पशुओं के लिये घास लाती महिलाओं को देख कलेजा मुँह को आने लगता है और उनके करीब आने पर लगभग 72 वर्ष की एक वृद्धा को अपने वज़न से ज्यादा घास पीठ पर लादे देख तो खुद पर भी शर्म आने लगी क्योंकि इसे गाँव की वो चढ़ाई चढ़नी अभी बाकी थी जिसे चढ़ते वक्त मुझे अपना कैमरा भी भारी लग रहा था। जोखिम और कठिनाइयों का यह सिलसिला इनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है और यहाँ के निवासी आज भी अपनी उत्तरजीविता के लिये संघर्षरत हैं।
इक नज़र में हिमालय की गोद में बसा जो गाँव इतना मोहक और रमणीक लग रहा था उसके अन्दर झाँकने पर एहसास हुआ कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। प्रदेश में विकास के नाम पर बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकारों की विकास की परिभाषा शायद इन ग्रामीणों की समझ से आज भी परे है क्योंकि उनके लिये तो जीवन में कठिनाइयाँ आज भी उन विशाल पर्वतों से ऊँची हैं जिसमें वो रहते हैं।

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