Wednesday, May 12, 2010

मौत तो एक दिन आनी ही है !

मौत तो एक दिन आनी ही है !


मरने के बाद लोग मरने वाले की इतनी और ऐसी-ऐसी तारीफें करते हैं कि सुन कर कई बार मर जाने का बड़ा मन करता है कि हाय, लोग मेरे बारे में कितने ऊँचे और अच्छे विचार रखते हैं। मैं उन्हें यूँ ही कमीना समझता रहा। हम यूँ ही बेखुदी में जिये चले जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि हम इतने महान हैं और हम में इतनी खूबियाँ हैं। हम ये हैं और वो हैं। दरअसल जीते जी हमें इस बारे में कोई बताता ही नहीं और मरके हम सुन नहीं पाते।
मरने वाले के परिवार वालों को उसकी महानता का पता तब चलता है जब उसे मरे कई दिन हो चुके होते हैं। यार-दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी वगैरा मातमपुर्सी को उसके घर जाते हैं। एक आदमी सर घुटाए क्रिया में बैठा होता है। आने वाले पंचमेवा और मूँगफली के पैकेट उसकी ओर यूँ उछालते हैं जैसे कूड़ेदान में कूड़ा डाल रहे हों। कुछों को तो लिफाफा दिवाली में मिलने वाले हैंड बम की तरह पटकते भी देखा जा सकता है। किसी को कुछ देने का यह बड़ा विचित्र तरीका है। नये लोगों के आते ही पहले से बैठे कुछ लोग, जो कि वास्तव में उकता गये होते हैं, जगह की कमी का बहाना कर उठ खड़े होते हैं। उठने वाले लोग गोबर की लकीर के उस पार कंबल में गांधीजी की सी पोज में बैठे आदमी से कहते हैं- तो अभी चलें। किसी भी चीज की जरूरत हो तो बताना, फोन कर देना निःसंकोच। उल्टी स्वेटर पहने वह आदमी हाँ-हाँ, जी-जी, क्यों नहीं, जरूर कहता हुआ लगभग हाथ जोड़ने पर उतारू हो जाता है। लेकिन तभी उसे ध्यान आता है कि आजकल हाथ जोड़ना वर्जित है, तो उसकी हथेलियाँ चुम्बक के समान धु्रवों की तरह दूर जा छिटकती हैं। वह कहता है- यार वो जरा बैंक वाला काम….. याद करके हाँ। और हाँ, 16 तारीख को प्रसाद लेने जरूर आना। मन ही मन वह सोचता है- साले इनमें से आधे भी नहीं जायेंगे। सारा खाना गड्ढे में दबाना पड़ेगा।

नये आये हुए लोग यहाँ-वहाँ फिक्स हो जाते हैं। जिस तरह गाड़ी में खिड़की वाली सीट सभी की पहली पसंद होती है, उसी तरह यहाँ पीठ को दीवार का सहारा मिल जाये तो क्या कहना ! पहले दो-एक ठंडी साँसें छोड़ी जाती हैं। यह क्रिया एक प्रकार का वॉर्म अप होता है। फिर बातें कुछ यूँ शुरू होती हैं- ओ हो…हरे राम, रामजी…तो पिताजी चले गये हैं। क्या कहें….आज कितने दिन हो गये ? पूछने वाले को पता होता है। बताने वाले को तो पता होना ही है लेकिन वह फिर भी गिनता है- बुध, बृहस्पति, आज क्या मंगल है ना ? …… सात दिन हो गये आज। क्या लगता है ….पूछने वाला कहेगा- हाँ देखो, समय जाने में क्या समय लगता है। दिवस जात नहिं लागहि वारा। मानव जीवन भी ना….कुछ नहीं…आदमी जीवन भर तेरा-तेरा, मेरा-मेरा करता है। सब यहीं रह जाना है। संसार क्या है देखो तो एक सराय है। रात गुजारो, आगे बढ़ो। क्यों, गलत तो नहीं कहा ? सब माया मोह का बंधन ठहरा। जीते जी इसे कौन समझा आज तक। हम कठपुतली हैं, जिस दिन उसने डोर खींची……..हमारी फैमिली से तो ताऊजी के बड़े ही आत्मीय संबंध ठहरे, बिल्कुल घर जैसे। हमारे पिताजी भी शतरंज के बड़े ही शौकीन। दोनों बैठे घंटों शतरंज खेल रहे हैं। उन्हें देख कर प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की याद आ जाती थी। प्रेमचंद भी एक महान साहित्यकार था। वैसे उसका असली नाम धनपतराय था। ताऊजी थे तो कुल मिलाकर ग्रेट आदमी। टाइम के एकदम पंक्चुअल। उन्हें देखकर आप घड़ी मिला लीजिये साहब। जिन्दगी भर आर्मी में रहे….एक दिन की बात है, मैं सुबह दूध लेकर आ रहा था। हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। मैंने देखा कि ताऊजी छाता ओढ़ कर गमलों में पानी दे रहे हैं। मैंने कहा- अंकल, क्या जरूरत है, पानी तो बरस ही रहा है। तो बोले- ना बेटा, ड्यूटी इज ड्यूटी। हमें अपना कर्तव्य करना ही चाहिये। सचमुच मुझे बड़ी प्रेरणा मिली उस बात से। क्या बात है! अगर हर आदमी इसी तरह सोचे तो ये देश कहाँ से कहाँ पहुँच जाये।
सच यह होता है कि उस दिन बुड्ढे को बारिश के बावजूद सिंचाईनुमा कुछ करते देख उसने सोचा था कि ये रिटायर्ड सूबेदार सठिया गया है। हरामी है साला, कोई भी काम वाली इसके यहाँ महीने भर से ज्यादा नहीं टिकती। उस बार मैं इससे होली मिलने गया। सोचा कि इसके पास आर्मी का कोटा रहता है, दो पैग व्हिस्की के तो देगा ही। इसने मुझे दूर से आते देख लिया तो दुमंजिले से उतर कर आँगन में आ गया। मुझे वहीं से टरका दिया। साला सोच रहा होगा कि में इसकी बहू को छेड़ने आया हूँ। कमीना आदमी और सोच भी क्या सकता है भला……

उस दिन जब इसकी माँ ने आकर कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया तो मैं धक्क से रह गया। कुछ कहना ही नहीं आया। मैं उस समय दाढ़ी बना रहा था, जल्दबाजी में यहाँ-वहाँ गहरे कट लग गये। नहाने के लिए पानी गरम रखा था, सब छोड़छाड़ के इधर को भागा। तब तक तुम लोग सब व्यवस्था कर चुके थे ……वास्तविक सीन कुछ इस तरह होता है- जब उसकी पत्नी आकर बताती है कि फोन पर फलाँ आदमी के गुजर जाने की खबर आई है तो वह झुँझलाकर कहता है- यार इस नीलाम्बर बुड्ढे को भी आज ही मरना था! परेशान ही किया इसने भी सबको जिन्दगी भर। अब बताओ, सी.एल. मैं सारी खा चुका हूँ। इन दिनों दफ्तरों में छापे पड़ रहे हैं, न जाने कब नौकरी चली जाये। लेकिन घाट जाना भी मजबूरी है। अब फ्रेंच लीव लेनी पड़ेगी। तुम जल्दी से दो पराँठे बना दो, खाना तो आज शाम ही को नसीब हो पाएगा। मैं झट से नहा लेता हूँ।
अच्छी-भली, बोलती-बतियाती महिलाओं का एक झुण्ड आंगन में प्रवेश करता है। किसी महिला की दबी-सी हँसी भी सुनाई पड़ती है। दरवाजे तक आते-आते अचानक उन्हें साँप-सूँघ जाता है। चप्पलें उतारते ही दो-एक महिलाएँ मुँह पर पल्लू रख कर सिसकने लगती हैं। मूँगफलियों के ढेर में पुड़िया डाल कर महिलाएँ भीतर के कमरे में चली जाती हैं। वहाँ की पटकथा भी वही होगी जो बाहर की है।
मरने वाला समाज में अगर थोड़ा भी नाम वाला आदमी हुआ या उसका बेटा कोई ऑफिसर हो तो मूँगफलियों, पंचमेवा और फलों का ढेर लगभग डरावना होता चला जाता है। कई बार लगता है कि क्रिया में बैठा आदमी इसके नीचे दबकर कहीं खुद ‘काबिले-तारीफ’ न हो जाए- बढ़िया आदमी था, पिताजी की क्रिया कर रहा था…….
हर आदमी के लिए लाजिम है कि वह इस अवसर पर कुछ न कुछ कहे। सकारात्मक टाइप का कुछ कहे और बढ़ाकर कहे। मसलन मरने वाला बेसुरी आवाज में बिना सुर-ताल के होली गाता हो तो उसे आप पं. भीमसेन जोशी से हरगिज कम मत आँकिए। मरने वाला अगर उम्रदराज आदमी हो और लम्बे समय तक तकलीफ झेलकर मरा हो तो यूँ कहा जाएगा- घोर कलयुग है महाराज, भले आदमी को तो चैन से मरना भी नसीब नहीं। अब देखो इन्होंने ही कितना झेला! जिन्दगी में किसी को तू शब्द नहीं कहा होगा……लगता है भगवान भी पक्षपात करने लगा है। और कोई अगर कम उम्र में चल बसे तो- अरे अभी उमर ही क्या थी! भले लोगों की तो भगवान को भी जरूरत होती है। उनके बिना उसका भी काम अटक जाता है, इसलिए जल्दी बुला लेता है। फिर आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द और सुभाष चन्द्र बोस वगैरा की मिसाल देकर अपनी बात की पुष्टि कीजिए।

कोई अगर चट से मर जाए तो- ये देखो, ये होती है धर्मात्मा आदमी की मौत। क्या शानदार मौत पाई! न खुद तकलीफ झेली न दूसरों को होने दी। एक दिन की भी टहल नहीं करवाई। भलाई आखिर काम आती है भई। है ना कोई ऊपर भी देखने वाला…..शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर है, आत्मा अजर-अमर है, शरीर रूपी चोले को बदलती है, साँसें तो गिनती की होती हैं, अब ये तो आवागमन का चक्र है, होनी तो होकर रहती है…आदि घिसी-पिटी बातें तो हैं ही कहने को अगर और कुछ न कहना चाहें तो। गीता भी बड़ी ही कारगर चीज है। समझदार लोग मौके के मुताबिक एकाध आधा-अधूरा श्लोक रटकर ले जाते हैं।
अंतिम साँस अगर अस्पताल में ली हो तो डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं को निरापद रूप से गरियाया जा सकता है- अजी ये डॉक्टर जो क्या हैं कसाई हैं। कसाई में भी इनसे ज्यादा दया होती है। आता-जाता इन्हें कुछ है नहीं, बस मरीज पर एक्सपैरिमेंट करते हैं। मरीज को लटका कर रख देंगे…. मीना के ससुर के साथ यही तो हुआ। तीन दिन तक यहाँ लटका कर ग्लूकोज चढ़ाते रहे। फिर जब हालत और बिगड़ गई तो आनन-फानन में रेफर कर दिया। रास्ते में ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी तो पता चला कि एम्बुलेंस में जो सिलेंडर है वह खाली है। दो किलोमीटर बाद उन्होंने दम तोड़ दिया। ये हाल है…..
मर्लिन मुनरो की महिलाओं को सलाह थी कि फोटो खिंचवाते समय होंठ हल्के-से अधखुले रखे जाएँ तो तस्वीर आकर्षक आती है, ध्यान खींचती है। ऐसी ही एक राय मेरे पास भी है। पूरी महफिल का ध्यान अपनी ओर खींचना हो तो बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक खींच कर ले जाइये। अमेरिका का नाम जरूर लें। अमेरिका का जिक्र फोटो खिंचवाते समय होंठों को अधखुला रखने जैसा ही है। लोग आपकी ओर बड़े श्रद्धाभाव से देखने लगते हैं। क्योंकि सब कुछ अमेरिका से ही शुरू होता है और वहाँ जो कुछ भी होता है, सर्वश्रेष्ठ होता है। मातमपुर्सी के मौके पर भी यह तकनीक कारगर है। जब आत्मा वगैरा की बात चल रही हो तो आप सबको धकियाते हुए बीच में कूद पड़िए और निम्नलिखित किस्सा सुना डालिए जो एक बार मैंने कहीं सुना था- हाँ-हाँ, और क्या, आत्मा होती है साहब। अमेरिका के वैज्ञानिकों ने इस बात को सिद्ध किया एक बार। उन्होंने एक प्रयोग किया। एक मरते हुए आदमी को उन्होंने काँच के एयरटाईट कमरे में बंद कर दिया और बाहर बैठ गए दूरबीन-खुर्दबीन और वैज्ञानिक उपकरण लेकर कि शरीर से आत्मा बाहर आए तो उसकी फोटो खींचे। अगर संभव हुआ तो पकड़ कर पूछताछ करें। अब वो तो बड़े दिमाग वाले लोग होते हैं न साहब। बाल की खाल निकालते हैं। तो जी, जरा देर बाद उस आदमी की गरदन एक ओर को लुढ़क गई और ठीक उसी समय शीशा एक जगह से चटख गया। क्या समझे ? मतलब आत्मा निकल गई शीशा तोड़ कर। मानना पड़ा उन्हें कि न सिर्फ आत्मा होती है बल्कि वह अदृश्य और बेहद ताकतवर भी होती है।

बड़ी अजब-गजब बातें कह जाते हैं लोग ऐसे मौकों पर। एक सज्जन कहते पाए गए कि ये बड़े विद्वान और महान आदमी थे इसीलिए मुझे बहुत मानते थे, मेरी बड़ी इज्जत करते थे…..
अब जरा मौसम की बात करें। लोगों की बातें सुन कर यूँ जान पड़ता है जैसे मरने वाले को यह अधिकार होता है कि वह मरने के लिए मनमाफिक मौसम चुन सकता है। आप चाहे जिस मौसम में मरें, लोग उसी को मरने के लिए आदर्श मौसम कह देते हैं। माना कि मौत दिसंबर-जनवरी में हो जाए, कड़ाके की ठंड पड़ रही हो। ऐसे में जाहिर सी बात है कि क्रिया वाले कमरे में सगड़ में आग जल रही होगी। आने वाले लोग कुछ इस तरह की बातें करेंगे- अहा देखो ताईजी, आग सेकने की कैसी बहार कर गईं। सीली लकड़ी भी कितनी अच्छी जल रही है। बड़ी ही धर्मात्मा ठहरी हो ताई, उन्हीं का प्रताप है। वर्ना सगड़ की ऐसी आग अब कहाँ देखने को मिलती है…..और देखो दिन में कैसी चटख धूप है आज-कल। आसमान एक दम नीला, साफ, स्वच्छ जैसा ताई जी का मन था…..और अगर आसमान में बादल हों तो कहिए- ऊपर वाले तक को उनके जाने का दुःख है, उस दिन से आसमान ही नहीं खुला। सूर्य देव भी ताई जी का शोक मना रहे हैं…….. गर्मियों में कोई मरे तो यह भी बड़ा ही देवता और धर्मात्मा टाइप का आदमी होता है और संवेदनशील भी। क्योंकि उसने मरने के लिए गर्मी का मौसम चुना। इस मौसम में सभी को सुविधा रहती है। खास तौर पर क्रिया कर रहे आदमी को नहाने-धोने की बड़ी सहूलियत रहती है। जाड़े-बरसात में यह काम बड़ा कठिन हो जाता है। पापी लोग अक्सर जाड़े बरसात में ही मरते हैं। ऐसे लोग जीते जी तो परेशान करते हैं, मर कर भी दूसरों को चैन नहीं लेने देते।
बारिश के मौसम में जो मरे वह भी ग्रेट आदमी होता है-दादाजी जिस दिन से गए हैं उस दिन से कैसी झमाझम बारिश हो रही है। वर्ना साहब क्या बात कर रहे हैं आप ? सूखा पड़ने के आसार पैदा हो गए थे। कोसी देखी आपने सिकुड़ कर इतनी सी रह गई थी…..बारिश भले ही दादाजी के मरने के हफ्ता भर पहले से हो रही हो, अगल-बगल बैठे लोग कहेंगे-हाँ, बिल्कुल और क्या ! अजी भले आदमी थे, जिन्दगी भर किसी का बुरा नहीं किया तो अंत समय भला काम किए बिना कैसे विदा होते ! देखो बारिश करवा गए।
मौत का एक दिन तय है लेकिन यकीन मानिए, मौसम की इसमें कोई बंदिश नहीं। आप चाहे जितने कुकर्म करके जिस किसी सीजन में मरिए, कहलाएँगे महान और देवता ही। आप जिस दिन मरें, माना उस दिन पास-पड़ोस में किसी महिला का बलात्कार हो जाए या जलजले में आधा शहर तबाह हो जाए तो कहने वाले इसे भी आप ही की इनायत कह सकते हैं उन्हें अगर कुछ और न सूझा कहने को तो, इसमें भी कुछ सकारात्मक चीज खोज निकालेंगे- देखो जनसंख्या नियंत्रण का कैसा कारगर उपाय सुझा गए जाते-जाते। देवता आदमी थे तुम्हारे पिता।

और अंत में एक प्रार्थना कि हे भगवान, तू अगर कहीं है और तेरे चलाए से यह दुनिया चलती है जैसी कि अफवाह है। तो मेरे भाई, वैज्ञानिकों को कभी ऐसा यंत्र मत बनाने देना कि जिससे हम दूसरों के मन की सच्ची बात सुन सकें। तूने मनुष्य से एटम बम बनवाया, मैंने बेमन से ही सही तेरा यह गुनाह बख्शा। मगर दूसरों के मन की सच्ची बात बताने वाली मशीन हरगिज मत बनने देना। हफ्ते भर के अन्दर दुनिया आपस में कट के मर जाएगी। महिलाएँ अपना एक अलग राज्य मांग लेंगीं। तेरे हरम की अप्सराएँ विद्रोह कर देंगी। दुनियाँ कैसी वीरान हो जाएगी ? यार बड़ी विकट स्थिति पैदा हो जाएगी। हम किसी से कहेंगे-भाई साहब, आप बड़े सज्जन आदमी हैं। मशीन के जरिये वह सुनेगा- तुझ जैसा कमीना आदमी मैंने आज तक नहीं देखा। तेरे दस्तखतों से बिल पास होता है, क्या करूँ मजबूरी है तुझे सज्जन कहना। लड़के का बाप कहेगा- नहीं भाई साहब, दहेज, तौबा-तौबा……लड़की का बाप सुनेगा-पाँचेक लाख का ड्राफ्ट तो मिलेगा ही। कहने वाला कहेगा- यार बड़ा दुःख हुआ तुम्हारे पिताजी के देहान्त की खबर सुन कर। मशीन कहेगी- उस बुड़ढ़े को तो बहुत पहले मर जाना चाहिए था। कमीना था साला नम्बर एक का। हम किसी महिला से कहेंगे- मैडम, ये साड़ी आप पर खूब फब रही है और मशीन उसके कान में सच फुसफुसाएगी कि …….
खैर, जाने भी दीजिए। कुल मिला कर हम सब कहीं न कहीं कमीने हैं, या जीवन में कभी न कभी होते हैं। सच यही है, यकीन कीजिए। क्या आपने वही सुना जो मैंने कहा ?

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