Tuesday, June 29, 2010

पौढ़ी गढ़वाल

पौढ़ी गढ़वाल

बर्फ से ढके हिमालय शिखर पौढ़ी की खूबसूरती को कहीं अधिक बढ़ाते हैं


पौढ़ी गढ़वाल उत्तराखंड का जिला है। यह भारत राज्‍य में स्थित है। इसका मुख्‍यालय पौढ़ी में स्थित है। यहां स्थित हिमालय, नदियां, जंगल और ऊंचे-ऊंचे शिखर यहां की खूबसूरती को अधिक बढ़ाते हैं। पौढ़ी समुद्र तल से लगभग 1814 मीटर की ऊंचाई पर स्‍िथत है। बर्फ से ढके हिमालय शिखर पौढ़ी की खूबसूरती को कहीं अधिक बढ़ाते हैं।

कहां घूमें
कंडोलिया
शिव मंदिर (कंडोलिया देवता) पौढ़ी से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कंडोलिया देवता का यह मंदिर वहां के भूमि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। इस मंदिर के समीप ही खूबसूरत पार्क और खेल परिसर भी स्थित है। इससे कुछ मिनट की दूरी पर ही एशिया का सबसे बड़ा स्‍टेडियम रांसी भी है। गर्मियों के दौरान कंडोलिया पार्क में पर्यटकों की भारी मात्रा में भीड़ देखी जा सकती है। यहां आने वाले पर्यटक अपने परिवार के साथ यहां का पूरा-पूरा मजा उठाते हैं। इस पार्क के एक तरफ खुबसूरत पौढ़ी शहर देखा जा सकता हैं वहीं दूसरी ओर गंगवारेशियन घाटी भी स्थित है।

बिंसर महादेव
बिंसर महादेव मंदिर 2480 मी. ऊंचाई पर स्थित है। यह पौढी से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह अपनी प्राकृतिक सौन्‍दर्यता के लिए जानी जाती है। यह मंदिर भगवान हरगौरी, गणेश और महिषासुरमंदिनी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर को लेकर यह माना जाता है कि यह मंदिर महाराजा पृथ्‍वी ने अपने पिता बिन्‍दु की याद में बनवाया था। इस मंदिर को बिंदेश्‍वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

ताराकुंड
ताराकुंड समुद्र तल से 2,200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ताराकुंड बहुत ही खूबसूरत एवं आकर्षित जगह है। जो पर्यटकों का ध्‍यान अपनी ओर अधिक खींचती है। ताराकुंड अधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से आस-पास का नजारा काफी मनमोहक लगता है। एक छोटी सी झील और बहुत पुराना मंदिर इस जगह को ओर अधिक सुंदर बनाता है। यहां तीज का त्‍यौहार, यहां रहने वाले स्‍थानीय निवासियों द्वारा बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। क्‍योंकि यह त्‍यौहार विशेष रूप से भूमि देवता को समर्पित होता है।

कान्‍वेश्रम
कान्‍वेश्रम मालिनी नदी के किनारे स्थित है। कोटद्वार से इस स्‍थान की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां स्थित कान्‍वा ऋषि आश्रम बहुत ही महत्‍वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जगह है। ऐसा माना जाता है कि सागा विश्‍वमित्रा ने यहां पर तपस्‍या की थी। भगवानों के देवता इंद्र उनकी तपस्‍या देखकर अत्‍यंत चिंतित होत गए और उन्‍होंने उनकी तपस्‍या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका विश्‍वामित्र की तपस्‍या को भंग करने में सफल भी रही। इसके बाद मेनका ने कन्‍या के रूप में जन्‍म लिया और पुन: स्‍वर्ग आ गई। बाद में वहीं कन्‍या शकुन्‍तला के नाम से जाने जानी लगी। और उनका विवाह हस्तिनापुर के महाराजा से हो गया। शकुन्‍लता ने कुछ समय बाद एक पुत्र को जन्‍म दिया। जिसका नाम भारत रखा गया। भारत के राजा बनने के बाद ही हमारे देश का नाम ''भारत' रखा गया।

दूधतोली
दूधतोली 31,00मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्‍थान जंगल से घिरा हुआ है। यहां तक पंहुचने के लिए थालीसैन अ‍ाखिरी बस टर्मिनल है। सड़क द्वारा थालीसैन से दूधतोली की दूरी 24 किलोमीटर है। दूधतोली पौढ़ी के खूबसूरत स्‍थानों में से एक है। यह स्‍थान हिमालय के चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां का नजारा बहुत ही आकर्षक है जो यहां आने वाले पर्यटकों को सदैव ही अपनी ओर आ‍कर्षित करता है। गढ़वाल के स्‍वतंत्रता सेनानी वीर चन्‍द्र सिंह गढ़वाली को भी यह स्‍थान काफी पसंद आया था। इसलिए उनकी यह अंन्तिम इच्‍छा थी कि उनकी मृत्‍यु के बाद उनके नाम से एक स्‍मारक यहां पर बनाया जाए। यह स्‍मारक ओक के बड़े-बड़े वृक्षों के बीच स्थित है। जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में 'नेवर से डाई' लिखा गया है।

जालपा देवी मंदिर
यह क्षेत्र प्रसिद्ध शक्ति पीठ माता दुर्गा को समर्पित है। इस स्‍थान की दूरी पौढ़ी-कोटद्वार सड़क मार्ग 33 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्‍थान भी प्रमुख धार्मिक स्‍थानों में से एक है। हर साल भक्‍तगण भारी संख्‍या में माता के दर्शनों के लिए यहां आते हैं। पौढ़ी-कोटद्वार सड़क मार्ग से पौढ़ी स्थित जालपा देवी मंदिर की दूरी 34 किलोमीटर है। हर साल नवरात्रों के अवसर पर यहां जालपा देवी की विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है।

खिरसू
खिरसू बर्फ से ढके पर्वतों के बीच स्थित है। इसके केन्‍द्र में हिमालय स्थित है। यहीं कारण है कि यह जगह भारी संख्‍या में पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यहां से बहुत से जाने-अनजाने नाम वाले शिखरों का नजारा देखा जा सकता है। यह पौढ़ी से 19 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। खिरसू काफी शन्तिपूर्ण स्‍थल है। इसके अलावा खिरसू पूरी तरह से प्रदूषण रहित जगह है। यह जगह ओक, देवदार और सेब के बगीचों से घिरी हुई है। यहां सबसे पुराने गंढीयाल देवता का मंदिर भी स्थित है।

Monday, June 28, 2010

खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते

खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते



खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते थे और हर प्राकृतिक चीज में उन्हें देवता का निवास प्रतीत होता था...आज उससे आगे]

आज की तरह घर-घर रावण, घर-घर लंका वाला युग नहीं था। लोग अपनी जरूरत भर की चीजें ही प्रकृति से लेते थे। बेच डालो या समेट लो वाली संस्कृति का प्रकोप भी नहीं था। अंधी कमाई भी नहीं थी। लोग पितरों की थात को महत्व देते थे। उसे संवर्द्धित करना अपना दायित्व समझते थे। आज की तरह नहीं कि लोग, सारे गाँव के हितों की उपेक्षा कर, अपने पितरों की थात को, सार्वजनिक जीवन के लिए अपरिहार्य जल, जंगल और जमीन को बेचने में कोई कसर न छोड़ रहे हो। आज तो घर को घर के चिराग ही आग लगा रहे हैं।

मैं देखता था कि वनाधिकारी और उनके अतिथि आते। आखेट करते। निशाने साधते। धराशायी होते कांकड़ और घुरड़, जैसे मरते हुए जूलियस सीजर की तरह ’अरे ब्रूटस तुम भी’ कहते हुए अंतिम साँस लेते। एक बार तो एक वनरक्षक ने अपनी निशानेबाजी का कमाल दिखाने के लिए एक ही गोली से सौ मीटर दूर परस्पर सिर भिड़ाए दो काँकड़ों को मार गिराया था। वनाधिकारी महोदय ने इस निशानेबाजी के लिए उसे पुरस्कृत किया था। उनके अतिथियों की वाह-वाह ने उसका सीना चौड़ा कर दिया था। ऐसा लग रहा था कि यदि उसे एक बार यह कमाल और दिखाने के लिए कहा जाता तो वह दस-पाँच घुरड़ों को और मार लाता। सच पूछें तो इस वन में मनुष्य के अलावा कोई भी प्राणी सुरक्षित नहीं था।

कितनी देर कर दी हम लोगों ने वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनाने में। अभी भी वनों के भीतर हमारी घुसपैठ कहाँ कम हुई है। हम वनों में घुस रहे हैं और वनचर हमारे घरों में। जब अपने प्रदेश में एक ही दिन में गाँव घरों से तीन-तीन बाघ पकड़े जा रहे हों तो इस चरम विसंगति को समझा जा सकता है। फिर भी इस अधिनियम से कुछ तो थमा है।

एड़द्यो की तलहटी में कोसी बहती थी। यह नदी कौसानी से निकल कर शाहजहाँपुर के पास रामगंगा में मिल जाती है। यह नदी मेरे गाँव से होकर भी जाती है। बचपन में अपने छज्जे में बैठ कर मैं इसे निहारता रहता था। शायद पहली कविता भी मैंने इसी नदी पर लिखी थी। तब इसमें बहुत पानी था। एक बार अपने दोस्त के साथ इस नदी को पार करने का प्रयास करते हुए मैं डूबने से बाल-बाल बचा था। सुना जाता है कि अपने खैरना प्रवास में सोमवारी बाबा इस नदी के जल में आकंठ निमग्न हो जाते और सारी मछलियाँ उनके हाथों का प्रसाद पाने के लिए उन्हें घेर लेतीं। बाबा एक-एक कर उन्हें रामनामांकित आटे की गोलियाँ खिलाते रहते। आज यह नदी प्यासी है। तब ग्रीष्म में भी इस नदी में इतना पानी होता था कि वन विभाग के सारे दार (प्रकाष्ठ) को अपने प्रवाह पथ के किसी भी भाग से रामनगर पहुँचाने का दारोमदार इसी नदी पर था। बीच-बीच में ठेकदार के कर्मचारी पत्थरों पर ठहर जाने वाले प्रकाष्ठ को धारा में धकेलते रहते थे। यह काम केवल इसी नदी में नहीं, अपितु यमुना, भागीरथी, पश्चिमी रामगंगा, सरयू, पूर्वी रामगंगा और काली सभी नदियों में होता था। इनमें पश्चिमी रामगंगा और कोसी तो ऐसी नदियाँ थीं, जिनका मूल हिमालय के गलों में न होकर मध्यवर्ती पहाड़ों में था। आज इनमें इतनी सामर्थ्य नहीं रह गयी है कि ये एक सामान्य से लट्ठे को भी अपने प्रवाह में गतिमय कर सकें। बाँज के उजड़ते जाने से ये नदियाँ भी जैसे बाँझ होती गयी हैं।

एड़द्यो मेरे लिए बचपन में देखा हुआ एक स्वप्न है। यहीं मैंने ’लोक’ को समझा था। वह भी समीपस्थ गैलेख और बगड्वाल गाँव के निवासियों से। इन गाँवों में हिन्दू भी रहते थे, मुसलमान भी। पर जब तक नाम न पुकारा जाय यह पता ही नहीं चलता था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। इन लोगों का कभी इस ओर ध्यान ही नहीं गया था कि जिसे वे भगवान या अल्लाह कहते हैं उसके लिए भी कोई घर होना चाहिए। परकोटा होना चाहिए, हथियारबन्द चौकीदार होने चाहिए। थान अवश्य थे। पर उन थानों में शिव, विष्णु, दुर्गा और गणेश जैसे महादेवताओं की अपेक्षा उनके साँझे इष्ट देवताओं का निवास था। ऐसे देवता जिन तक वे सहजता से पहुँच कर अपने दुःख-सुख बाँट सकते थे। ग्वेल और गंगनाथ थे तो पीर और सिद्ध बाबा भी।

ऐड़द्यो मैं मैंने जनसामान्य के देवत्व को देखा है। मुझे पीलिया ने घेर लिया था। दो मील दूर बगड्वाल गाँव की एक बूढ़ी मुस्लिम महिला इसका स्थानीय उपचार जानती थी। वह रोज दो मील दूर अपने गाँव से आती। मेरे गले में कंटकारि के पीले फलों की ताजी माला पहनाती। काँसे के कटोरे में सरसों के तेल में कुछ पानी की बूँदें डाल कर उसे मेरे सिर पर रखती और देर तक कुछ बुदबुदाती हुई एक पत्ते से तेल को घुमाती रहती। जब तेल गाढ़ा और पीला हो जाता, उसे मुझे दिखाती और कहती पीलिया, बस थोड़ा सा ही रह गया है। संभवतः यह तो मात्र मनौवैज्ञानिक उपाय था। असली उपचार तो आहार में परिवर्तन से हो रहा था। चिकनी चीजें बन्द। भट का जौला और मूली और उसके पत्तों का भोजन। एक माह में पूरी तरह ठीक हो गया। वृद्धा एक माह तक अपना सारा काम-धाम छोड़ कर लगातार आती रही थी, लेकिन जब उसे पारिश्रमिक देने का प्रयास किया तो उसने नहीं लिया। कहा, जो अल्लाह का है उसकी कीमत मैं कैसे ले सकती हूँ।

ऐड़द्यो मेरे मन में एक पीड़ा के रूप में भी विद्यमान है। यहाँ मेरे परिवार ने अपने परम मित्र को खोया है। एक ऐसा मित्र जो वर्षों हमारे परिवार का अभिन्न अंग बना रहा। जिसने हमारे काम के लिए न दिन देखा न रात। जो मेरे लिए अपने बड़े भाई की तरह था तो पिता जी के लिए सर्वस्व। यह बिछुड़न दैहिक नहीं थी, मानसिक थी। यहीं आकर उसे बोध हुआ कि वह ठाकुर है और हम ब्राह्मण। ’कुमाऊँ राजपूत’ के विषवमन से रुग्ण हमारे पड़ोसी पतरौलों, केसरसिंह और किशनसिंह ने उसे इतना जातिवाद पिला दिया कि उसकी नजर ही बदल गयी। बीस वर्ष तक मेरे पिता जी का अभिन्न सहचर, हमारे लिए कुछ भी करने के लिए तैयार, दुर्लभ पारिवारिक मित्र सिराड़ का नारायणसिंह इस ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के जाल में उलझ कर रह गया।

आज भी विद्वेष के इस जहर को फैलाने में हमारे नेता और बुद्धिजीवी नहीं चूक रहे हैं। सारी दुनिया घूम चुकने के बाद भी हमारे एक साहित्यकार मित्र को पूर्व मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी में मात्र उनका ठाकुर होना ही दिखाई देता है।

Sunday, June 13, 2010

योग गुरू बाबा रामदेव रोडवेज की बस में!

योग गुरू बाबा रामदेव रोडवेज की बस में!

योग गुरु बाबा रामदेव को रोडवेज की बस में सफर करते देखा तो मैं एक बार के लिए चौंक पड़ा। आप भी शायद चौंक गये होंगे कि देश भर के धार्मिक चैनलों से लेकर न्यूज एवं मनोरंजन चैनलों में हर वक्त छाए रहने वाले योग गुरु बाबा स्वामी रामदेव और रोडवेज की बस में ? अब क्या करें ? देश-विदेश में फैले पतंजलि योगपीठ तथा भारत स्वाभिमान संस्था के लिए उन्हें यह भी करना पड रहा है। अब यह मत सोचिए कि बाबा रामदेव व्यापक सुरक्षा तथा ताम-झाम और चेले-चपाटों के भारी भरकम लाव लश्कर के साथ उत्तराखंड रोडवेज परिवहन निगम की बस में यात्रा करने निकल पडे़ हैं। अरे यार, वह तो बतौर विज्ञापन होर्डिंग रोडवेज की बसों में हर रोज हजारों हजार किलोमीटर की दूरी तय कर एक जगह से दूसरी जगह पहुँच रहे हैं।

अपने देश में योग एवं प्राणायाम की गंगा बहाने वाले बाबा स्वामी रामदेव एकमात्र शख्स नहीं हैं। योग एवं प्राणायाम की विधा एवं परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। लेकिन इसको स्टेटस सिंबल की तरह बेहद हाई-फाई बनाने और उसे लोकप्रिय बनाने का कार्य जरूर बाबा जी ने किया है। यही नहीं, योग एवं प्राणायाम को विशुद्ध रूप से व्यावसायिक उद्योग का स्वरूप प्रदान करने का कार्य भी बाबा रामदेव ने कर दिखाया। अब आलम ये है कि गरीब से लेकर अमीर वर्ग का तबका सुबह-शाम बाबाजी के योग टिप्स अपनाने का अभ्यास करने लगा है। यह और बात है कि अमीर वर्ग के लोगों में योग एवं प्राणायाम शिविरों में जाना एक स्टेटस सिंबल बन गया हो। गरीबों को तो बाबाजी के शिविरों में प्रवेश ही नहीं मिल पाता है। मध्यम वर्ग के लोग अलबत्ता अपने घरों में टीवी के आगे दरी बिछाकर बाबाजी के बताए मार्ग का अनुसरण करने लगे हैं। योग एवं प्राणायाम क्रियाओं के दौरान बहुत ज्यादा बातें करना लाभदायक नहीं माना जाता, मगर बाबाजी तो बोलते ही उस समय हैं जब वह लोगों को योग एवं प्राणायाम की क्रियाओं की जानकारियाँ दे रहे होते हैं।

बाबा रामदेव जी ब्रह्म मुहूर्त में विभिन्न टीवी चैनलों के माध्यम से अपने योग पीठ एवं फार्मेसी में तैयार किए गए तेल, दंतमंजन, च्यवनप्राश, साबुन, क्रीम, पाउडर, चाय, बिस्कुट सहित नाना प्रकार की आयुर्वेदिक दवाएँ बेचने के अभियान के अलावा मल्टीनेशनल कंपनियों को सबक सिखाने का बीड़ा भी उठाए हुए हैं। यदि मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पाद देश में छाए रहे तो फिर बाबा जी की कम्पनी द्वारा उत्पादित किए जा रहे विभिन्न सामानों की बिक्री कैसे हो सकेगी। अब एक बानगी देखिए। बाबाजी के योग शिविर में विभिन्न रोगों से पीड़ित होने वाले रोगियों के ठीक होने की जानकारी टीवी के लाइव प्रसारण द्वारा दी जाती है। लेकिन यदि कोई बाबाजी से काउंटर प्रश्न पूछे तो उस पीड़ित को बोलने का मौका नहीं दिया जाता है। आखिर बाबाजी ने योग से असाध्य रोगों के ठीक होने का दावा जो किया है। ऐसे में बाबाजी की पोल खोलने वालों को उनका अपना टीवी चैनल कैसे और क्यों दिखाएगा ?

बाबाजी की कृपा से देश में अब तक उपेक्षित रही लौकी विशिष्ट स्थान पा चुकी है। लौकी के जूस को जिस तरह से उन्होंने हर मर्ज की एकमात्र दवा करार दिया है, वैसा आज तक कोई नहीं कर सका है। आँवले के अलावा ऐलोवेरा को भी बाबाजी ने नई मंजिल मुहैया कराई है। हम तो बाबाजी को एक ही सलाह दे सकते हैं कि अब आप राजनीति के अखाडे़ में तो उतर ही रहे हैं, उससे पहले वह लौकी व आँवले के जूस के अलावा ऐलोवेरा के जूस का पेंटेंट अवश्य करा लें। क्या पता लौकी, आँवले या ऐलोवेरा में से ही कोई एक चीज बाबाजी की पार्टी को बतौर चुनाव चिन्ह मिल जाए।

Monday, June 7, 2010

पहाड़ की खेती बचाने को चिंतन


पहाड़ की खेती बचाने को चिंतन



‘बीज बचाओ आंदोलन’ द्वारा 29-30अप्रैल 2010 को खाड़ी एवं नागणी में आयोजित गोष्ठी में समाजसेवियों, किसानों वैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों ने दो दिन के विचार विमर्श के बाद अनेक प्रस्ताव पास किए। यह माँग की गयी कि उत्तराखण्ड में जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिये अतिरिक्त सब्सिडी दी जाये। यहाँ रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा है। खास कर नेपाल से आये लोग सबसे अधिक जहरीली सब्जी पैदा कर रहे हैं। रासायनिक उपकरणों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने और जैविक खेती को बढ़ावा की माँग की गयी। बीटी बैंगन पर प्रतिबन्ध लगाना अच्छी शुरूआत है। अब केरल की तरह उत्तराखण्ड को जी.एम. मुक्त राज्य बनाने की घोषणा भी करनी चाहिए। हिमालय की विविधता युक्त जैव विविधता को बचाने के लिए जी.एम. बीजों का विरोध जरूरी है। पहाड़ों में खेती की रीढ़, यहाँ की महिलाओं को पुरुष किसान के बराबर के अधिकार मिलने चाहिए।

पहाड़ों में फसलों की उपज गिरने का एक मुख्य कारण मिट्टी का क्षरण है। सीढ़ीदार खेतों से उपजाऊ मिट्टी बह-बह कर जा रही है। भूमि एवं उपजाऊ मिट्टी के संरक्षण की अग्रगामी योजना बननी चाहिए। यह कार्य मनरेगा में किया जाना चाहिए। कृषि योग्य भूमि दिन-प्रतिदिन कम हो रही है और सरकार इसे और घटाने में लगी हुई है। नदी घाटियों की उपजाऊ भूमि को बाँधों में डुबाया जा रहा है और बची-खुची अच्छी जमीन को कथित औद्योगिक विकास के लिए कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। खेती की जमीन का दुरुपयोग किसी भी दशा में गैर कृषि कार्य के लिए नहीं होना चाहिए। सूखा या अन्य प्राकृतिक प्रकोपों के लिए फसलों की क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है, किंतु इसकी दरें आज भी वहीं है जो अंग्रेजों ने या रियासत ने तय किया था। जबकि इस दौरान कर्मचारियों का वेतन सौ गुणा से भी अधिक बढ़ा। महंगायी आसमान छू रही है। किसानों की प्रतिकर की दरें आज की बाजार की महंगाई के हिसाब से मिलनी चाहिए।

टिहरी बाँध बनने के बाद प्रशासन ने घाटी में विचरण करने वाले सुअर व बंदरों को विस्थापित करने के बजाय हमारे खेतों में खदेड़ दिया। आज जंगली जानवर किसानों की फसलों को बड़ी मात्रा में क्षति पहुंचा रहे हैं। खेती को क्षति पहुंचाने वाले सुअरों को मारने, बंदरों को पकड़कर राष्ट्रीय पार्कों में सरकारी खर्च पर छोड़ने एवं इनकी संख्या कम करने के लिये नसबंदी का बृहद अभियान चलाने के अलावा फसलों की क्षतिपूर्ति आज के बाजार भाव के हिसाब से करने की माँग की गयी। यह चिंता प्रकट की गयी कि जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा की योजना न होने के कारण किसानों द्वारा खेती छोड़ने की शुरूआत हो गयी है।

खाद्य सम्प्रभुता एवं जलवायु परिवर्तन के दौर में एकल (मोनोकल्चर) फसलों को खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण के लिये खतरा मानते हुए बारहनाजा जैसी मिश्रित फसल पद्धति को आदर्श माना गया। विविधतायुक्त मिश्रित खेती और मंडुआ, झंगोरा, कौणी एवं ज्वार जैसे पोषण के अनाज भविष्य की असली खेती हैं, जो भुखमरी एवं कुपोषण से बचाने में सक्षम हैं। अनाजों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी शामिल करने की माँग किसानों ने की। धान की पारंपरिक प्रजातियों के संरक्षण करने पर जोर दिया गया। अनुभवी किसानों ने बताया कि हमारे पहाड़ों में खरीफ की फसलों को ‘कखड़ फाल्या’ कहते थे। यानी फसल पौंधों की दूरी काखड़ की टाप के बराबर रखी जाती थी। पौंधों की दूरी बढ़ाने और कम सिंचाई से उपज स्वतः दुगनी हो जाती है।

पहाड़ों के लिये छोटी नदियाँ वरदायिनी हैं। इनसे यहाँ पारंपरिक पद्धति ‘कुलवाली’ से सिंचाई होती है। किंतु अब छोटी नदियाँ सूखने की कगार पर हैं। इनके संरक्षण के लिये वनीकरण व चाल-खाल एवं ‘रौ’ पद्धति को अपनाते हुए चैकडैम व नदी के तटबंध बनाये जाने चाहिये। पहाड़ों में पशुपालन के बिना खेती की कल्पना नहीं की जा सकती। इसे खत्म होने से बचाने के लिये लुप्त हो रही देसी नस्लों को बचाया जाना चाहिये। ‘गौवंश संरक्षण अधिनियम’ बनाने वाली सरकार स्वयं ही देसी गाय की नस्लों को खत्म कर रही है। विदेशी नस्ल को बढ़ाने के लिये कृत्रिम गर्भाधान कराना अनैतिक है। प्रत्येक गाँव में नैसर्गिक गर्भाधान केंद्र खोले जाने चाहिये। पशुधन को बढ़ाने से डेरी उद्योग भी पनपेगा और जैविक खेती भी मजबूत होगी। गौवंश के सरंक्षण का कानून बनाने वाली सरकार द्वारा बैलों के स्थान पर हल जोतने के लिये ‘पावर ट्रिलर’ को बढ़ावा देकर कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं। जबकि आज बदलते जलवायु और मौसम के दौर में गौवंश और बैल को ऊर्जा के बड़े स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिये। साथ ही यह जैविक खाद एवं कीटनाशक का विकेन्द्रित कारखाना भी है।

युवा पीढ़ी की दिलचस्पी खेती की ओर लगाने के लिये शिक्षा पद्धति मे परिवर्तन लान,जैविक सब्जी उत्पादन, बागवानी, फल प्रसस्ंकरण डेरी उद्योग, छोटे-छोटे लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की अनेक योजनायें बनाने पर जोर दिया गया। विनाशकारी विकास रोकने के लिये एक समग्र हिमालय नीति बनाने पर जोर दिया गया। ‘बीज बचाओ आंदोलन’ ने खेती के संकट के संदर्भ में नारा दिया है- ‘‘खेती पर किसकी मार? जंगली जानवर, मौसम और सरकार’’। सम्मेलन के प्रस्ताव उत्तराखंड सरकार के कृषि मंत्री के सलाहकार को सौंपे गये, जो सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर सम्मेलन में आये थे।


Thursday, June 3, 2010

उत्तराखंड के जवानों के शौर्य और मां के बलिदान की मार्मिक गाथा है

उत्तराखंड के जवानों के शौर्य और मां के बलिदान की मार्मिक गाथा है





प्रसिद्ध उत्तराखंडी भवन निर्माता माधवानंद भट्ट निर्मित अब तककी सबसे बड़े बजट की उत्तराखंडीफ़िल्म `सिपैजी' का प्रीमियर शो२८ फरवरी को नयी दिल्ली मेंसंपन्न हुआ। इस फ़िल्म केप्रीमियर का उद्घाटन उत्तराखंड केपर्यटन तथा संस्कृति मंत्री प्रकाशपंत ने किया है। इस शुभ अवसरपर देश के दो वीर सपूतों केपरिजनों को सम्मानित कियागया। दिल्ली के बाटला कांड मेंशहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद जोशीतथा मुंबई में २६ नवंबर कोआतंकी हमले में शहीद कमांडोगजेंद्र सिंह बिष्ट के परिजनों कोफ़िल्म के प्रीमियर के शुभ अवसरपर सम्मानित किया गया। अपनीफ़िल्म के प्रीमियर पर शहीदों कोसम्मानित करने की सोच फ़िल्मनिर्माता माधव भट्ट की ही थी।इसी से प्रतीत होता है कि,उन्होंने इस फ़िल्म का निर्माण दिल सेकिया है। उत्तराखंड देवभूमि केसाथ-साथ वीरों की भी भूमि है।यहां के वीर सपूतों की कहानियांजगप्रसिद्ध हैं।
एक सिपाही के परिजनों कोक्या-क्या कष्ट उठाने पड़ते हैं तथाशहीद सपूतांे की माता केबलिदान को इस फ़िल्म में दर्शायागया है। यह पहली उत्तराखंडीफ़िल्म है जो कि संयुक्त रूप सेगढ़वाली और कुमाऊंनी इन दोनोंभाषाओं को मिलाकर बनायी गयीहै। सेंसर बोर्ड ने इस फ़िल्म कोगढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा मेंरजिस्टर करते हुए उत्तराखंडीभाषा में रजिस्टर किया है। इसफ़िल्म का लेखन मुंबई के रंगमंचपर चर्चित नाम ज्योति राठौर नेकिया है। इस फ़िल्म में गढ़वालऔर कुमाऊं दोनांें क्षेत्रों कोदर्शाया गया है। अपने उत्तराखंड सेअथाह प्यार करनेवाले माधवानंदभट्ट के मुताबिक उनकी यह कृतिउत्तराखंडी फ़िल्म इतिहास में मीलका पत्थर साबित होगी। इसफ़िल्म को उन्होंने राष्ट्रीय फ़िल्मफेस्टिवल में ले जाने का निश्र्चयकिया है, ताकि राष्ट्रीय स्तर परउत्तराखंडी फ़िल्मों को प्रोत्साहनमिले और अधिक से अधिक लोगफ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कार्यकरें।
माधवानंद भट्ट उत्तराखंड मेंफ़िल्म सिटी के निर्माण तथाउत्तराखंडी रंगमंच के कलाकारों कोउत्तराखंड सरकार से उचितप्रोत्साहन देने के पक्षधर हैं। विगतकई महीनों से उनकी उत्तराखंडसरकार से इस विषय पर चर्चाजारी है। भट्ट का कहना है कि, उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कमीनहीं है। ज़रूरत है उन्हें सहीमार्गदर्शन और प्रोत्साहन देने की।जल्द ही यह फ़िल्म देश के अन्यमहानगरों में भी प्रदर्शित कीजायेगी।