Monday, May 3, 2010

वों कि बोर्यों माँ सब्जी हमारी बोरी मा रेतु छा

वों कि बोर्यों माँ सब्जी हमारी बोरी मा रेतु छा




चमोली के आदिबद्री कस्बे से सटी आटा गाड़ सभी के लिए समान रूप से बहती है। मगर उसी गाड़ से नेपाली पानी का उपयोग कर सब्जी उगाते हैं और उसी गाड़ के पानी का नहीं, उसकी लाई बजरी का उपयोग करते हैं हमारे गढ़वाल के लोग। सड़क पर गाड़ियों-ट्रको में बोरियाँ दोनों ही लादते हैं। लेकिन नेपाली की बोरी में बेचने के लिए सब्जी होती है और गढ़वाली रेता सिमेंट भर घर ले जाते हैं। यही नजरिया है पानी की नदियों के उपयोग का। हम रेता बटोर कर ऐशोआराम की जिंदगी जीना चाहते हैं और वे मेहनत कर इसी नदी से सब्जी खा कर पुष्ट शरीर और पैसे दोनो कमाते हैं। ऐसे ही यथार्थ से आप कहीं भी दो-चार हो सकते हैं। रेता समेटने की मानसिकता से हम कब उबरेंगे पता नहीं।
आकाश कुण्ड में अब नहीं झांकता आकाश
ये सामान्य कुण्ड नहीं, चमोली जिले में 12 हजार फीट पर स्थित तुंगनाथ मंदिर के पास का आदि अनादि काल से प्यासों को पानी ही नहीं पुण्य भी पिलाता रहा है। मगर इस वर्ष ये सूख गया है। 15 अप्रैल को ही चोपता और तुंगनाथ की बर्फ पिघल गई। चोरों ने मंदिर के कलश चोरी कर लिए। वहाँ पुलिस तो थी पर उन्हें भी 3 किलोमीटर नीचे चौपता आकर पीने का पानी ले जाना पड़ता है और खाना भी। मंदिर के आसपास कहीं पानी के स्रोत नहीं बचे हैं। आकाशकुंड के पास का गधेरा भी सूख गया है और इसी गधेरे से बिछी जल संस्थान की पाइपलाईन मुँह चिढ़ा रहे हैं। अगले माह मंदिर के कपाट खुलने हैं 19 मई को। तब तक आसपास कहीं एक बूँद पानी नहीं रहेगा। सरकार ने सुरक्षा की व्यवस्था तो कर दी पर मंदिर परिसर में दर्जनों स्थानीय लोगों के ढाबों में रौनक बिना पानी कैसे आयेगा, यक्ष प्रश्न बन कर उभरा है।
माटी से दूर करते अच्छे स्कूल
टिहरी जिले से उत्तरकाशी रोड पर 8 किमी. दूरी पर लोग बंठे लेकर लंबी कतार में सड़क पर खुदे हैंडपंप की ओर बढ़ रहे हैं। अचरज ये कि नीचे टिहरी डैम की झील है और लोग ऊपर पानी ढोने जा रहे हैं मीलों दूर। पूछने पर लोग बताते हैं कि पाइप लाईन का स्रोत सूखा है तो हैंडपंप की शरण जाना पड़ रहा है। बताते हैं कि मूल गाँव से ऊपर आकर सड़क पर बसे 7 साल हो गये। बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना था तो घर छोड़ा और नये बसे कस्बे की रौनक बढ़ा दी पर अपनी माटी, वहाँ का स्कूल। कौन सँवारेगा वहाँ की हालात ? एक युवा कहते हैं कि अब हमारी आदत टूट गई है माटी में काम करना नहीं भाता। अच्छे स्कूल कितने अच्छे हैं ? बताते हैं वहाँ भी अच्छे शिक्षक तो नहीं हैं पर रोज स्कूल खुलता है और अच्छी ड्रेस-टाई बच्चे पहनते हैं। पढ़ाई क्या है, कैसी है, इसका भरोसा कोई दे नहीं पाता। सब कुछ अंधेरे में है, पर दौड़ जारी है। हाल बयाँ करने का यह तो एक उदाहरण है। राज्य में ऐसे ही पुराने और नये विकसित हो रहे कस्बों पर बस्तियाँ बस रही हैं। उन्हे उद्देश्य पता है, पर परिणाम क्या मिल रहा है ये पता नहीं चल पा रहा है।
मेला तो पहले होता था
मेले में पहले होती थी चाँचरी, झोड़ा, अब धक्का-मुक्की। गैरसैंण में वैशाखी पर पूरे बाजार में युवा धक्का-मुक्की करते भारी संख्या में इधर से उधर विचरण कर रहे हैं। किसी को पता नही इस वैशाखी मेले का नाम क्या है और मनाया क्यों जाता है। दूर अपने मकान की छत पर बैठे एक बुजुर्ग कुढ़ते हुए बताते हैं कि – बूढ़ कौथीग के नाम से मशहूर इस कौथीग की शुरूआत मासांत से होती थी गाँव धारगैड़ से, जहाँ बूढ़ यानी शिव की डोली को पाण्डवाघाट ले जाया जाता था और इसी तरह बुढ़िया यानी नंदा-पार्वती के मंदिर तक आसपास के ग्रामीण चौफला, चांचरी,घौंसेलु, लोकनृत्य-गीत के साथ आते थे और शिव पार्वती को भेंट चढ़ा कर अपने-अपने घर जाते और गाँव में बूढ़ कौथीग के साथ बासंती गीतों का समापन गुड़ प्रसाद बाँट कर किया जाता था। दरअसल बसंत पंचमी से खरीफ फसल तैयारी के साथ लोग बासंती गीत हर रात गाते थे और दिन भर की थकान बिसराते थे। बूढ़ कौथीग में बताते हैं कि अंतिम दिन नंदा को भेंट के साथ खुश करने के लिए एक नृत्य गीत होता था धौंस्येलो। लो बागड़ी नंदा धौंस्येलो और चांचरी के जैसे समूह में धौंस्येलो बोल पर आगे की तरफ आकर धम्म से बैठते थे। धौंस्येलो का उद्देश्य नंदा को मनाने का था, लेकिन अब की वैशाखी पर तो युवा निरुद्देश्य ही धौंस्येलो सरेआम कर रहे हैं। सरकार और समाज दोनों चुप हैं। अपने में तो ऐसा ही होगा निरुद्देश्य युवाओं का धौंस्येलो !!

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