Friday, May 28, 2010

वन संरक्षण की नीतियों में जनहित को नहीं दी जाती तरजीह


उत्तराखण्ड का तकरीबन 45 फीसदी भाग वनों से ढँका पड़ा है। अगर उच्च हिमालय की वनस्पतिरहित, सदा हिमाच्छादित चोटियों को छोड़ दिया जाये, तो वन यहाँ के 66 फीसदी क्षेत्रफल को घेरे हैं। भारत में कुल क्षेत्रफल का 33 फीसदी वन क्षेत्र होना पर्याप्त माना गया है। इस दृष्टि से हम एक समृद्ध राज्य हैं। इन वनों के प्रबंधन के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने तमाम नीतियाँ बनाई हैं और बेतहाशा बजट खर्च किया है। लेकिन ये नीतियाँ इन्हीं जंगलों के साये में रहने वाले जनसमुदाय को जंगलों का दुश्मन मानती हैं और इन्हें जंगलों से बेदखल करना अपना लक्ष्य। वनों, वन्य जीवों और पारिस्थितिकी के संरक्षण के नाम पर ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर से ही सरकार ने जनता के जंगलों के अधिकारों पर कानून बनाकर कब्जा कर लिया था, जो आज भी अनवरत् जारी है। ब्रिटिश हुकूमत के दौर में हिमालयी वनों को सरकार ने प्रचुर कच्चे माल के ख़जाने के तौर पर देखा। मुख्य रूप से वनों से प्राप्त लकड़ी के लिए जंगलों को बेतहाशा काटा गया। पहाड़ों पर तीव्रता से लुढ़कती नदियों पर लकड़ी को बहाकर मध्य हिमालय की तलहटी के मैदानी क्षेत्रों में पहुँचाया जाता था। तभी यहाँ तक लकड़ी के ढुलान के लिए रेल भी पहुँचा दी गई थी। एक ओर से वनों का बेतहाशा विदोहन हुआ तो दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने वनों के अध्ययन एवं नये प्रबन्धन के लिए देहरादून में फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना कर स्वयं को वन प्रेमी और संरक्षक दिखलाने का भ्रम भी बनाये रखा। यह स्थिति आजादी के बाद भी बरकरार है।
1936 में मशहूर कार्बेट नेशनल पार्क बनाकर स्थानीय जनता के जंगलों से जुड़े हकों को छीनने की शुरूआत हुई। पार्क के 520 वर्ग किमी के क्षेत्र में आने वाले तमाम गाँवों के बाशिंदों के अपने जंगल अब अपने नहीं रहे। जंगलों से जुड़ी उनकी छोटी जरूरतें भी पार्क के कानूनों की मोहताज थीं। भारत की आजादी के बाद से अब तक उत्तराखण्ड में इसके क्षेत्रफल के 11 प्रतिशत में छः राष्ट्रीय उद्यान (नेशनल पार्क) और छः पशु विहार (सेंचुरी) बनाए गए हैं। कार्बेट पार्क के अलावा इन पाँच राष्ट्रीय उद्यानों में 1982 में चमोली जिले में नन्दादेवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी को 625 और 87.50 वर्ग किमी में बनाया गया। 1983 में हरिद्वार और देहरादून जिलों में 820 वर्ग किमी में राजाजी नेशनल पार्क को, 1989 में उत्तरकाशी जिले में 2,390 वर्ग किमी में ‘गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान’ और 1990 में उत्तरकाशी जिले के ही 472 वर्ग किमी में ‘गोविन्द नेशनल पार्क’ भी बनाया गया। इसके अतिरिक्त छः वन्य जीव विहारों में 1955 में उत्तरकाशी जिले के 485 वर्ग किमी में ‘गोविन्द पशु विहार’, 1972 में चमोली के 975 वर्ग किमी में ‘केदारनाथ वन्य जीव विहार’, 1986 में पिथौरागढ़ के 600 किमी में ‘अस्कोट वन्य जीव विहार’, 1988 में अल्मोड़ा के 47 वर्ग किमी में बिनसर वन्य जीव विहार, 1993 में देहरादून के 10 वर्ग किमी में ‘मसूरी वन्य जीव विहार’ और 1997 में पौड़ी जिले में 301 वर्ग किमी में ‘सोना नदी वन्य जीव विहार’ बनाये गये। वनों और वन्य जीवन के संरक्षण के नाम पर इन पार्कों और सेंक्चुरियों की तय सीमाओं के भीतर आने वाले हजारों गाँवों के लोगों को उनके जंगलों से लकड़ी, घास, पत्ती, औषधि, पानी आदि के उनके हकों से वंचित कर दिया गया। कृषि उत्पादन पर ही आजीविका चलाने वाले इन ग्रामीणों के जंगल से जुड़े सीधे हक प्रभावित हो गये हैं। जंगली जानवर उनकी खेती तबाह कर देते हैं, पालतू जानवरों को मार डालते हैं। इंसानों पर हमला होना आम बात हो गयी है। वन कानूनों से बँधे ये ग्रामीण मूकदर्शक बनकर रह जाते हैं।
उत्तराखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद से गुलदार, भालू, बाघ, सुअर आदि जंगली जानवरों ने 300 मनुष्यों को मार डाला है। जानवरों के हमले में 800 लोग गम्भीर रूप से घायल भी हुए हैं। चाहे इन उद्यानों और विहारों के वन जनता के लिए दुर्लभ हो गऐ हों, लेकिन कुप्रबन्धन के चलते तस्करों के लिए ये उद्यान लगभग खुले हैं। यहाँ से वन्य सम्पदाओं और वन्य जीवों की बेतहाशा तस्करी होती रहती है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार राज्य बनने के बाद अब तक 43 बाघ, 457 गुलदार और 173 हाथियों की जान जा चुकी है। इनमें प्राकृतिक रूप से केवल 8 बाघ, 132 गुलदार और 15 हाथी ही मरे हैं। शेष शिकारियों और तस्करों का निशाना बने।
वन्य संरक्षण के लिए घोषित इन क्षेत्रों में अमीर पर्यटकों के लिए बड़ी कम्पनियों व एनजीओ आदि द्वारा वन भूमि पर ही बनाए गये बड़े-बड़े होटल, रेस्त्राँ आदि को वन विभाग ने इको टूरिज्म के विस्तार के नाम पर छूट दे रखी है। वन एवं वन्य जीव संरक्षण के नाम पर तमाम सेंक्चुअरी और पार्क बनाने के अलावा, वन अधिनियम सरीखे कानून ने पूरे राज्य के जंगलों से जनता को बेदखल कर दिया है। जितने जंगल अब भी जनता के पास ‘वन पंचायतों’ के जरिए हैं, उनकी हालत वन विभाग के जंगलों से बेहतर है। दरअसल जनता के जंगलों से भावनात्मक रिश्ते भी हैं, जबकि वन विभाग का रिश्ता व्यावसायिक ही रहा है। वनों के प्रति जनता और वन विभाग की मानसिकता को परखने के पर्याप्त उदाहरण यहाँ हैं। वन पंचायत के जंगलों को, ग्रामीण तय अवधि तक स्थानीय देवी देवताओं को चढ़ा देते हैं। धार्मिक आस्थाओं के चलते इस अवधि में जंगलों से किसी भी किस्म का विदोहन सफल रूप से प्रतिबन्धित हो जाता है और जंगल भर उठते हैं। वहीं वन विभाग ने पूरे प्रदेश में बेतहाशा बजट लुटा कर जो जंगल तैयार किए हैं, उनमें पतली पत्ती वाले चीड़ के जंगलों की प्रचुरता है। पतली पत्ती के जंगलों के बजाय चौड़ी पत्ती के जंगल जैव विविधता के आधार पर ज्यादा उपयोगी माने जाते हैं। लेकिन चीड़ के जंगल बिना अधिक मेहनत के उग आते हैं, इनका विस्तार तीव्रता से होता है और वन विभाग के लिए ‘लीसा’ उत्पादन कर यह भारी कमाई करते हैं। सो विभाग चौड़ी पत्ती के जंगलों के बजाय चीड़ के जंगलों को प्राथमिकता देता है।
विगत दिनों देहरादून में एफ. आर. आई. से जुड़ी एक फोटो गैलरी का उद्घाटन करते हुए केन्द्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने कहा कि ‘‘क्षेत्रीय जनता को साथ लिए बिना जंगलों का वास्तविक संरक्षण संभव नहीं है। उन्हें साथ लेना जरूरी है।’’ दरअसल ये जरूरी बातें मंचों में ही सिमट कर रह जाती हैं। सवाल यह है कि जंगलों के संरक्षण के लिए बनने वाली वास्तविक नीतियों में क्षेत्रीय जनता को कितनी तरजीह दी जाती है और वन से जुड़ा प्रशासन और नीति नियंता किस गहराई तक इस बात को समझ पाते हैं।

Monday, May 24, 2010

माता की चोकी

माता की चोकी
जय माता दी

अपना मा का वासता कुछ सबध लिखनु छो
भगवती तु ख्याल राखी
संजय मा दूध लाज राखी

ना हो कु सतोयना जनि
मेरु भेजी भुला और दागडियो मा प्यार राखी





जय चक्रबंदनी जोग माया खप्परभरनी
तू ही चामुंडा शैलपुत्री नंदा इंगला पिंगला दैत्याधाविनी
महानारी चंद्रघंटिका महाकालरात्रि कालीमाता
जब देवतों को अत्यचार हुए तब त्येर माता को जन्म हुए
राज राजेश्वरी गोरजा भवानी चमन्कोट चामुंडा
श्री शक्लेश्वर कार्तिकेय श्री देवी दैन्य संघारे
श्री गणेशाय नमः जाए नमः उद्हारिणी पिंगला महेश्वरी
महेश्वरी दैत्यधाऊ गेमन मिचाऊ तब त्वे देवी कै जाप सुनाऊ
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
जय बोला तेरी जय बोला
जय बोला तेरी जय बोला
बल गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
हाँ गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
बेली बधान माता बल तेरा मैती होला
मल बधान जालू माँ नंदा जी को डोला
शिव कैलाश जालू माँ नंदा जी का डोला
सिद्धपीठ नौटी से चले राज जात
त्येर मैतार नौटी से चले राज जात
नन्द केसरी में हौला गढ़ कुमो का साथ
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोल
११ वर्षा पुजा हूनी वैदिनी का ताल
देख तेरा हाथून हवे राज्ञसू को काल
बारहू साल में त्येर चौसीघा हवे खांडू
बान गो माँ भाई त्येरु देवता रे दुलातु
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
रजा कनकपाल न चंदपुरान बती
कन्नोज का राजा छाणी दैज देन भेटी
१ बार ऊ भी बल माला खून ग्येन
अरे येन भग्यान हवेन नि घर बोडी एइन
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
अध बाटा मलानी कुपुत्र हून ल्हेगे
नर संहार ह्वेगे माता कुचील हवे गे
तब से नार का कालू न बनी रूप कुंद
माँ कु श्राप ल्हेगे बची अस्थि और मुंड
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
भद्रेस्वर निस्मा चा कडू रो को धाम
६ मेहना बवून ६ दसौली का नाम
पडो हो नंदा कु बल पैलू कुल सारी माँ
जख बिराज मान चा भगवती काली माँ
जय हो नंदा देवी तेरी जय बोला
गढ़ कुमो की माता मेरी जय बोला
रूप कुंद पित्रू तर्पण दिए जांदु
होम कुंद खाडू चौसिंघ पूजी जांदु
माता ९ दुर्गा की पुनि आरती पूजा देना
कैलाश की और चौसिंघ पाठी देना

sanjaygarhwali@gmail.com
http://sanjaygarhwali.blogspot.com/
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Saturday, May 22, 2010


Friday, May 21, 2010

कोई ग्रामीणों को विकास की परिभाषा तो समझाये

कोई ग्रामीणों को विकास की परिभाषा तो समझाये



जोशीमठ के निकट हिमालय की वादियों में बसे खूबसूरत गांव सलूड़ डूंग्रा का एक दिन का रम्माण मेला यूनेस्को द्वारा विश्व सांस्कृतिक धरोहर धोषित होने के बाद से आजकल सुर्खियों में है। गांव में मकान दूर-दूर हैं, खूब खेती है और गॉव के शीर्ष से घना जंगल शुरू हो जाता है। शहरों की भीड़-भाड़ और शोर-शराबे से दूर इस गाँव में खुलेपन और सुकून का एहसास होता है। गाँव के खेतों के बीच छोटी सी बलखाती पगड़ंड़ी से होते हुए मैं अपने एक साथी के साथ जंगल की तरफ चल पड़ा। मुख्य गाँव से काफ़ी ऊपर चढ़ कर पेड़ों की झुरमुट के बीच एक पुराना मकान नज़र आया। पठाल की छत और खुला सा पठाल का चौक देख कदम वहीं थम गये। पास ही आलू के खेत में गुड़ाई कर रही एक महिला ने हमें फोटो खींचता देखा तो हमारी ओर चली आयी। अभिवादन हुआ और एक प्याली चाय का न्यौता भी मिला। ऐसा लगा मानो मन की मुराद पूरी हो गयी हो। चाय देकर वो महिला एकटक जंगल की ओर ताकती रही। उसे जंगल में लकड़ी के लिये अकेले गये अपने 12 साल के लाड़ले का इन्तज़ार था। माँ के साथ-साथ अब हमारी नजरें भी उसे ढूंढने लगी क्योंकि इन जंगलों में भालू के कारण वो महिला कुछ पल पहले हमें भी जाने से रोक रही थी। सब का इन्तज़ार खत्म हुआ और दूर से पीठ पर लकड़ी का गट्ठर लिये एक छोटा सा लड़का नज़र आया। दूर से ही कुछ अजनबियों को अपने घर के चौक में बैठे देख उसने अपने चेहरे पर पहना काला चश्मा उतार कर सिर पर लगा लिया। जिम्मेदारियों का बोझ के साथ-साथ आज के युग से भी कदम मिला कर चलने की ललक उसके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी। उस प्यारे से मासूम बच्चे को सुरक्षित घर लौटता देख हमारा इन्तज़ार तो एक पल को ख़त्म हो गया लेकिन रोज़ यह नन्हा ऐसे ही जोखिम उठाता है और दिल पर पत्थर रख कर हर दिन यह माँ उसका इन्तज़ार करती है।
मकान के आसपास खेतों को देख मैंने पूछा कि आलू आपके यहाँ बहुत होता है तो उस महिला ने बोझिल स्वर में उत्तर दिया कि होता तो है लेकिन हमसे पहले उसे जंगली सूअर निकाल लेते हैं और कई बार तो जो आलू का बीज बोते हैं वो भी हाथ नहीं लगता। गाँव में राजमा और दाल का भी उत्पादन होता है लेकिन सबकुछ जंगली जीवों और मौसम के रहमोकरम पर रहता है बस इतना ही बच पाता है कि किसी तरह परिवार की कुछ महीनों तक गुज़र बसर हो सके।
इस मकान से लगभग 200 मी0 दूर जंगल में गाँव का घराट (पनचक्की) है। प्राकृतिक स्त्रोत से चलने वाले इस घराट का हर पुरजा और हिस्सा गाँव में ही तैयार किया गया है। घराट की देखभाल गाँव का एक युवक करता है जिसे इसके एवज़ में पिसाई का कुछ हिस्सा मिलता है। इस घराट पर भी चौंकन्ना रहना पड़ता है क्योंकि यह घना जंगल और बीच से बहता पानी भालू की पसंदीदा जगह है। भालू अक्सर इस घराट पर पिसे अनाज व दालों के बिखरे कणों को चाटने आता है और पूरे घराट में तोड़-फोड़ मचा देता है। घास और पठाल से बनी घराट की छत को भालू इतनी बार उजाड़ चुका है कि उसकी जगह अब पतली पॉलिथीन की पन्नी ने ले ली है जिसे बदलते-बदलते भी अब लोग थक चुके हैं।
पानी के लिये गाँव प्राकृतिक स्रोत पर निर्भर है जिसके लिये हर रोज़ दिन में कई बार लंबा सफर तय करना पड़ता है। खड़ी चट्टानों से पशुओं के लिये घास लाती महिलाओं को देख कलेजा मुँह को आने लगता है और उनके करीब आने पर लगभग 72 वर्ष की एक वृद्धा को अपने वज़न से ज्यादा घास पीठ पर लादे देख तो खुद पर भी शर्म आने लगी क्योंकि इसे गाँव की वो चढ़ाई चढ़नी अभी बाकी थी जिसे चढ़ते वक्त मुझे अपना कैमरा भी भारी लग रहा था। जोखिम और कठिनाइयों का यह सिलसिला इनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है और यहाँ के निवासी आज भी अपनी उत्तरजीविता के लिये संघर्षरत हैं।
इक नज़र में हिमालय की गोद में बसा जो गाँव इतना मोहक और रमणीक लग रहा था उसके अन्दर झाँकने पर एहसास हुआ कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। प्रदेश में विकास के नाम पर बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकारों की विकास की परिभाषा शायद इन ग्रामीणों की समझ से आज भी परे है क्योंकि उनके लिये तो जीवन में कठिनाइयाँ आज भी उन विशाल पर्वतों से ऊँची हैं जिसमें वो रहते हैं।

Wednesday, May 19, 2010

फिर बोतल से बाहर आया कंडी रोड का जिन्न

फिर बोतल से बाहर आया कंडी रोड का जिन्न




रामनगर- कालागढ़- कोटद्वार मोटर मार्ग को आम यातायात के लिये खोले जाने की माँग को लेकर उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर यूकेडी ने एक बार फिर इस मामले को सुर्खियों में ला दिया है। इस बार यह याचिका उत्तराखण्ड क्रांति दल के पी.सी. जोशी ने दायर की है जो कि इससे पूर्व कंडी रोड को आम यातायात के लिये खोले जाने के लिये चलाये गये आन्दोलन के अगुवा दस्ते में थे परन्तु अचानक दूसरे आन्दोलकारियों के साथ आन्दोलन की फार्म को लेकर हुए विवाद के चलते उन्होने इस आन्दोलन से अपने को अलग कर लिया था। कंडी रोड का यह मामला इससे पूर्व वर्ष 2006 में चर्चा में आया था, जब इस माँग को लेकर रामनगर में ऐतिहासिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था।
गौरतलब है कि टनकपुर (पूर्णागिरी) से हरिद्वार तक के लिये ब्रिटिश काल में आम यातायात के लिये इस कंडी मार्ग का उपयोग होता चला आया था। यह मार्ग हल्द्वानी, कालाढूँगी, रामनगर, लालढाँग, कालागढ़, होते हुए हरिद्वार व कोटद्वार जाता था। व्यापार, आवागमन व तीर्थ यात्राएँ इसी मार्ग से की जाती थीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दिनों में तराई के काशीपुर, रुद्रपुर, जसपुर, धामपुर आदि नगरों का विकास होने के कारण व्यापारी समुदाय ने जंगल से होकर गुजरने वाले इस परम्परागत कच्चे कंडी मोटर मार्ग को छोड़कर इसकी अपेक्षा तराई क्षेत्र के अधिक सुगम व डामरीकृत सरल मार्ग का उपयोग करना आरम्भ कर दिया, जिस कारण कालान्तर में यह उपेक्षित हो गया। वन विभाग ने भी इस मार्ग पर कोई यातायात न चलने के कारण इस पर चल रहा थोड़ा बहुत यातायात भी सुरक्षा की दृष्टि से बन्द करा दिया। अंग्रेजी काल में इस मार्ग की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि उस दौर में ‘सब माउण्टेन रोड’ के नाम से जानी जाने वाली इस सड़क को ही आधार मानकर सरकार ने पर्वतीय व गैर पर्वतीय क्षेत्र का बँटवारा किया था। टनकपुर-हल्द्वानी-रामनगर -कालागढ़ कण्डी रोड क्षेत्र से ऊपर के क्षेत्रों को जलवायु के दृष्टिकोण से पर्वतीय व नीचे के क्षेत्र को मैदानी क्षेत्र घोषित किया गया था। इसी के आधार पर अधिकारियों एवं कर्मचारियों को पर्वतीय भत्ते का भुगतान मिलता था। सर्वे ऑफ इण्डिया के मानचित्र में भी इस रोड का चित्रण है।
सैकड़ों वर्ष पुरानी इस सड़क का मुद्दा उत्तराखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद तब पहली बार सामने आया, जब इस क्षेत्र के निवासियों को यहाँ से प्रदेश की अस्थाई राजधानी देहरादून को जाने के लिये उ.प्र. के क्षेत्र से होकर गुजरना पड़ा। कंडी रोड की अपेक्षा कहीं अधिक लम्बा व दो-दो राज्यों को टैक्स देने की मार से मजबूर लोगो ने कंडी रोड को ही इस यातायात के लिये मुफीद माना था।
अपनी विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही उत्तराखण्ड संभवतः देश का ऐसा पहला राज्य बन गया था, जिसकी अस्थाई राजधानी (गढ़वाल मंडल) से उच्च न्यायालय (कुमाऊँ मण्डल) तक सड़क मार्ग से जाने के लिये दूसरे प्रदेश से होकर जाना पड़ता था। इसी कारण से अलग राज्य बनने के बाद कंडी रोड को आम यातायात के लिये खोले जाने की माँग मुखर रूप से उठाई गई। कुमाऊँ मण्डल क्षेत्र के लोगों का कहना था कि रामनगर से काशीपुर- जसपुर- अफजलगढ़ होकर देहरादून जाने के लिये रामनगर से कोटद्वार की दूरी 161 किमी. पड़ती है जबकि पुराने कंडी मार्ग (रामनगर- झिरना- लालढांग- कालागढ़) से यह दूरी मात्र 88 किमी. ही पड़ती है। इस मार्ग को खोलने के लिये क्षेत्रीय जनता ने लम्बे समय तक आन्दोलन भी किया था। इस दौरान राज्य के मुख्य सचिव से लेकर हर बड़े दरबार में आन्दोलनकारियों की आवाज गूँजी लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। एक ओर जहाँ क्षेत्रीय जनता इस मार्ग को खुलवाने के लिये सड़कों पर उतर आई थी तो इस मार्ग के बीच में जिम कार्बेट नेशनल पार्क का मामला आ जाने के कारण पर्यावरणवादियों ने इस मामले में हस्तक्षेप कर इस सड़क को न खोलने की बात करनी आरम्भ कर दी। हाई-प्रोफाइल यह पर्यावरणविद् इस विवाद को सुप्रीम कोर्ट तक लेकर चले गये, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने रामनगर से कोटद्वार जाने वाले पुराने कंडी रोड व उप्र से होकर गुजरने वाले रोड की जगह पर्यावरणविदों की सलाह पर एक नया रोड मेप देते हुए 138 किमी. लम्बी दूसरी सड़क का प्रस्ताव दिया जिसका 95 किमी. हिस्सा उत्तराखण्ड व 43 किमी. हिस्सा उ.प्र. से होकर गुजरता था। इस मामले में क्षेत्रीय जनता का आरोप था कि इन पर्यावरणवादियों ने जिस रोड का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट में दिया है, इस क्षेत्र के आसपास उन्होने जमीनें खरीद रखी हैं। बात यहाँ भी नहीं बनी जिस कारण इस क्षेत्र की जनता ने एक बड़ा आन्दोलन कंडी रोड की माँग के लिये खड़ा कर दिया। इस आन्दोलन के दौरान ही रामनगर-कालागढ़-कोटद्वार मोटर मार्ग संयुक्त संघर्ष समिति के भारी विरोध के बाद वर्ष 2006 में 23 सितम्बर को नैनीताल में कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के समक्ष देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए 23 किमी. के उस क्षेत्र में, जहाँ पर्यावरणवादियों को पर्यांवरण के लिहाज से आपत्ति थी, पर फ्लाईओवरनुमा मार्ग (एलीवेटेड रोड) बनाने का सुझाव दिया था, जिससे कि यातायात के दौरान वन्यजीवों को कोई व्यवधान न पहुंचे। लोक निर्माण विभाग ने भी प्रधानमंत्री के इस हस्तक्षेप के बाद एक 992 करोड़ का प्रस्ताव बनाकर सरकार को दिया था, जिसमें रामनगर से लालढांग (18 किमी.) की लागत 198 करोड़, लालढांग से कालागढ़ (23 किमी.) की लागत 690 करोड़, कालागढ़ से पाखरो (24 किमी.) की लागत 66 करोड़ तथा पाखरो से कोटद्वार (23 किमी.) की लागत 338 करोड़ आँकी गई थी। इस मार्ग के बाद रामनगर से हरिद्वार की कुल लम्बाई 106 किमी. पड़ती जो कि अभी उ.प्र. वाले मार्ग से 185 किमी. पड़ती है। लेकिन अज्ञात कारणों से यह मामला फाइलों के ढेर में गुम हो गया।
हालाँकि उच्च न्यायालय ने इस मामले को सुनवाई के लिये मंजूर करते हुए राज्य सरकार व भारत सरकार से इस मामले में चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा है। अब एक बार फिर कंडी रोड का मामला चर्चा में है लेकिन इस मामले में आज की व पूर्व की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है। एक तो कार्बेट नेशनल पार्क की सीमा में जिला बिजनौर का हिस्सा रहे कालागढ़ वन प्रभाग के अमानगढ़ रेंज को भी मिलाकर इसका बाकायदा नोटिफिकेशन कर दिया गया है, जिससे पूर्व में पार्क के किनारे से हो कर गुजरने वाली यह कंडी रोड अब पार्क क्षेत्र के बीच में आ गई है जिससे पर्यावरणविदों का पक्ष और मजबूत हो गया है। इस शक्तिशाली लॉबी के विरोध को देखते हुए लगता है कि इस बार भी यह मामला यों ही अनसुलझा ही रह जायेगा।

Thursday, May 13, 2010

ऋषि से बने योद्धा

ऋषि से बने योद्धा


ऋग्वेद और पुराण की कथा में भृगु वंश का कई स्थान पर वर्णन किया गया है। इन्हीं के वंशज थे परशुराम। वेदऋषि जमदग्नि इनके पिता और माता थीं रेणुका। वैशाख शुक्ल तृतीया, यानी अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपने पिता से वेदशास्त्र और धनुर्विद्या की दक्षता प्राप्त कर ली। आगे कविकुल चायमान से मल्लयुद्ध सीखा। वे शिवजी को प्रसन्न करने के लिए गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने चले गए। अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दिव्यास्त्रों की दीक्षा के साथ परशु और त्रयम्बक दंड भी प्रदान किया और असुरों से मुक्त करने का आशीर्वाद भी। भृगुवंशी व हैहयवंशी क्षत्रियों के बीच पीढि़यों से शत्रुता थी। हैहयवंश में ही सहस्रबाहु अर्जुन का जन्म हुआ, जिसकी वीरता की चर्चा चारों ओर थी।
युद्ध विद्या में पारंगत होने के बाद शिवजी ने परशुराम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। कई दिनों तक चले द्वन्द्व युद्ध के दौरान एक दिन त्रिशूल का वार बचाते हुए परशुराम ने शिव के मस्तक पर फरसे से प्रहार कर दिया। शिष्य के इस युद्ध कौशल से गद्गद होकर गुरु शंकर ने परशुराम को गले लगा लिया। इसके बाद शिवजी के अनन्त नामों में एक नाम 'खडपरशु' भी जुड़ गया।
इधर, सहस्रबाहु अर्जुन के अत्याचार और उत्पीड़न से प्रजा त्रस्त हो रही थी। एक दिन वह परशुराम की खोज में जमदग्नि ऋषि के आश्रम पहुंच गया। परशुराम की अनुपस्थिति में सहस्रबाहु ने संपूर्ण आश्रम को जला दिया और वहां बंधी कामधेनु गाय को अपने साथ राजमहल ले गया। यह गाय ऋषि को इंद्र से मिली थी। जब परशुराम आश्रम लौटे, तो उसके नृशंस कृत्य से अवगत हुए। वे अकेले ही महिष्मती नगरी की ओर चल दिए। परशुराम ने राजमहल के भीतर घुसकर उन्होंने अपने फरसे से अर्जुन की सहस्र भुजाएं काट डाली। कुछ ही समय बाद सहस्रबाहु के पुत्रों, पौत्रों और कई अहंकारी क्षत्रिय राजाओं ने मिलकर जमदग्नि आश्रम पर फिर से हमला बोल दिया और उनका वध कर दिया। सांयकाल जब परशुराम आश्रम लौटे, तो पिता का शव देखा। वे तुरंत महिष्मती की ओर चल पड़े। उनके कंधे पर पिता का शव था, तो पीछे थीं विलाप करती हुईं उनकी माता रेणुका। उन्होंने क्रोधित होकर क्षत्रियों का समूल नाश कर दिया। इसके बाद उन्होंने पितृ तर्पण और श्राद्ध क्रिया की। पितरों की आज्ञानुसार परशुराम ने अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया। इसके बाद वे दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए। यहीं सह्याद्रि पर्वत पर उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर भड़ौंच से कन्या- कुमारी तक का संपूर्ण समुद्रगत प्रदेश समुद्र से दान भेंट में प्राप्त किया।

Wednesday, May 12, 2010

मौत तो एक दिन आनी ही है !

मौत तो एक दिन आनी ही है !


मरने के बाद लोग मरने वाले की इतनी और ऐसी-ऐसी तारीफें करते हैं कि सुन कर कई बार मर जाने का बड़ा मन करता है कि हाय, लोग मेरे बारे में कितने ऊँचे और अच्छे विचार रखते हैं। मैं उन्हें यूँ ही कमीना समझता रहा। हम यूँ ही बेखुदी में जिये चले जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि हम इतने महान हैं और हम में इतनी खूबियाँ हैं। हम ये हैं और वो हैं। दरअसल जीते जी हमें इस बारे में कोई बताता ही नहीं और मरके हम सुन नहीं पाते।
मरने वाले के परिवार वालों को उसकी महानता का पता तब चलता है जब उसे मरे कई दिन हो चुके होते हैं। यार-दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी वगैरा मातमपुर्सी को उसके घर जाते हैं। एक आदमी सर घुटाए क्रिया में बैठा होता है। आने वाले पंचमेवा और मूँगफली के पैकेट उसकी ओर यूँ उछालते हैं जैसे कूड़ेदान में कूड़ा डाल रहे हों। कुछों को तो लिफाफा दिवाली में मिलने वाले हैंड बम की तरह पटकते भी देखा जा सकता है। किसी को कुछ देने का यह बड़ा विचित्र तरीका है। नये लोगों के आते ही पहले से बैठे कुछ लोग, जो कि वास्तव में उकता गये होते हैं, जगह की कमी का बहाना कर उठ खड़े होते हैं। उठने वाले लोग गोबर की लकीर के उस पार कंबल में गांधीजी की सी पोज में बैठे आदमी से कहते हैं- तो अभी चलें। किसी भी चीज की जरूरत हो तो बताना, फोन कर देना निःसंकोच। उल्टी स्वेटर पहने वह आदमी हाँ-हाँ, जी-जी, क्यों नहीं, जरूर कहता हुआ लगभग हाथ जोड़ने पर उतारू हो जाता है। लेकिन तभी उसे ध्यान आता है कि आजकल हाथ जोड़ना वर्जित है, तो उसकी हथेलियाँ चुम्बक के समान धु्रवों की तरह दूर जा छिटकती हैं। वह कहता है- यार वो जरा बैंक वाला काम….. याद करके हाँ। और हाँ, 16 तारीख को प्रसाद लेने जरूर आना। मन ही मन वह सोचता है- साले इनमें से आधे भी नहीं जायेंगे। सारा खाना गड्ढे में दबाना पड़ेगा।

नये आये हुए लोग यहाँ-वहाँ फिक्स हो जाते हैं। जिस तरह गाड़ी में खिड़की वाली सीट सभी की पहली पसंद होती है, उसी तरह यहाँ पीठ को दीवार का सहारा मिल जाये तो क्या कहना ! पहले दो-एक ठंडी साँसें छोड़ी जाती हैं। यह क्रिया एक प्रकार का वॉर्म अप होता है। फिर बातें कुछ यूँ शुरू होती हैं- ओ हो…हरे राम, रामजी…तो पिताजी चले गये हैं। क्या कहें….आज कितने दिन हो गये ? पूछने वाले को पता होता है। बताने वाले को तो पता होना ही है लेकिन वह फिर भी गिनता है- बुध, बृहस्पति, आज क्या मंगल है ना ? …… सात दिन हो गये आज। क्या लगता है ….पूछने वाला कहेगा- हाँ देखो, समय जाने में क्या समय लगता है। दिवस जात नहिं लागहि वारा। मानव जीवन भी ना….कुछ नहीं…आदमी जीवन भर तेरा-तेरा, मेरा-मेरा करता है। सब यहीं रह जाना है। संसार क्या है देखो तो एक सराय है। रात गुजारो, आगे बढ़ो। क्यों, गलत तो नहीं कहा ? सब माया मोह का बंधन ठहरा। जीते जी इसे कौन समझा आज तक। हम कठपुतली हैं, जिस दिन उसने डोर खींची……..हमारी फैमिली से तो ताऊजी के बड़े ही आत्मीय संबंध ठहरे, बिल्कुल घर जैसे। हमारे पिताजी भी शतरंज के बड़े ही शौकीन। दोनों बैठे घंटों शतरंज खेल रहे हैं। उन्हें देख कर प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की याद आ जाती थी। प्रेमचंद भी एक महान साहित्यकार था। वैसे उसका असली नाम धनपतराय था। ताऊजी थे तो कुल मिलाकर ग्रेट आदमी। टाइम के एकदम पंक्चुअल। उन्हें देखकर आप घड़ी मिला लीजिये साहब। जिन्दगी भर आर्मी में रहे….एक दिन की बात है, मैं सुबह दूध लेकर आ रहा था। हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। मैंने देखा कि ताऊजी छाता ओढ़ कर गमलों में पानी दे रहे हैं। मैंने कहा- अंकल, क्या जरूरत है, पानी तो बरस ही रहा है। तो बोले- ना बेटा, ड्यूटी इज ड्यूटी। हमें अपना कर्तव्य करना ही चाहिये। सचमुच मुझे बड़ी प्रेरणा मिली उस बात से। क्या बात है! अगर हर आदमी इसी तरह सोचे तो ये देश कहाँ से कहाँ पहुँच जाये।
सच यह होता है कि उस दिन बुड्ढे को बारिश के बावजूद सिंचाईनुमा कुछ करते देख उसने सोचा था कि ये रिटायर्ड सूबेदार सठिया गया है। हरामी है साला, कोई भी काम वाली इसके यहाँ महीने भर से ज्यादा नहीं टिकती। उस बार मैं इससे होली मिलने गया। सोचा कि इसके पास आर्मी का कोटा रहता है, दो पैग व्हिस्की के तो देगा ही। इसने मुझे दूर से आते देख लिया तो दुमंजिले से उतर कर आँगन में आ गया। मुझे वहीं से टरका दिया। साला सोच रहा होगा कि में इसकी बहू को छेड़ने आया हूँ। कमीना आदमी और सोच भी क्या सकता है भला……

उस दिन जब इसकी माँ ने आकर कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया तो मैं धक्क से रह गया। कुछ कहना ही नहीं आया। मैं उस समय दाढ़ी बना रहा था, जल्दबाजी में यहाँ-वहाँ गहरे कट लग गये। नहाने के लिए पानी गरम रखा था, सब छोड़छाड़ के इधर को भागा। तब तक तुम लोग सब व्यवस्था कर चुके थे ……वास्तविक सीन कुछ इस तरह होता है- जब उसकी पत्नी आकर बताती है कि फोन पर फलाँ आदमी के गुजर जाने की खबर आई है तो वह झुँझलाकर कहता है- यार इस नीलाम्बर बुड्ढे को भी आज ही मरना था! परेशान ही किया इसने भी सबको जिन्दगी भर। अब बताओ, सी.एल. मैं सारी खा चुका हूँ। इन दिनों दफ्तरों में छापे पड़ रहे हैं, न जाने कब नौकरी चली जाये। लेकिन घाट जाना भी मजबूरी है। अब फ्रेंच लीव लेनी पड़ेगी। तुम जल्दी से दो पराँठे बना दो, खाना तो आज शाम ही को नसीब हो पाएगा। मैं झट से नहा लेता हूँ।
अच्छी-भली, बोलती-बतियाती महिलाओं का एक झुण्ड आंगन में प्रवेश करता है। किसी महिला की दबी-सी हँसी भी सुनाई पड़ती है। दरवाजे तक आते-आते अचानक उन्हें साँप-सूँघ जाता है। चप्पलें उतारते ही दो-एक महिलाएँ मुँह पर पल्लू रख कर सिसकने लगती हैं। मूँगफलियों के ढेर में पुड़िया डाल कर महिलाएँ भीतर के कमरे में चली जाती हैं। वहाँ की पटकथा भी वही होगी जो बाहर की है।
मरने वाला समाज में अगर थोड़ा भी नाम वाला आदमी हुआ या उसका बेटा कोई ऑफिसर हो तो मूँगफलियों, पंचमेवा और फलों का ढेर लगभग डरावना होता चला जाता है। कई बार लगता है कि क्रिया में बैठा आदमी इसके नीचे दबकर कहीं खुद ‘काबिले-तारीफ’ न हो जाए- बढ़िया आदमी था, पिताजी की क्रिया कर रहा था…….
हर आदमी के लिए लाजिम है कि वह इस अवसर पर कुछ न कुछ कहे। सकारात्मक टाइप का कुछ कहे और बढ़ाकर कहे। मसलन मरने वाला बेसुरी आवाज में बिना सुर-ताल के होली गाता हो तो उसे आप पं. भीमसेन जोशी से हरगिज कम मत आँकिए। मरने वाला अगर उम्रदराज आदमी हो और लम्बे समय तक तकलीफ झेलकर मरा हो तो यूँ कहा जाएगा- घोर कलयुग है महाराज, भले आदमी को तो चैन से मरना भी नसीब नहीं। अब देखो इन्होंने ही कितना झेला! जिन्दगी में किसी को तू शब्द नहीं कहा होगा……लगता है भगवान भी पक्षपात करने लगा है। और कोई अगर कम उम्र में चल बसे तो- अरे अभी उमर ही क्या थी! भले लोगों की तो भगवान को भी जरूरत होती है। उनके बिना उसका भी काम अटक जाता है, इसलिए जल्दी बुला लेता है। फिर आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द और सुभाष चन्द्र बोस वगैरा की मिसाल देकर अपनी बात की पुष्टि कीजिए।

कोई अगर चट से मर जाए तो- ये देखो, ये होती है धर्मात्मा आदमी की मौत। क्या शानदार मौत पाई! न खुद तकलीफ झेली न दूसरों को होने दी। एक दिन की भी टहल नहीं करवाई। भलाई आखिर काम आती है भई। है ना कोई ऊपर भी देखने वाला…..शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर है, आत्मा अजर-अमर है, शरीर रूपी चोले को बदलती है, साँसें तो गिनती की होती हैं, अब ये तो आवागमन का चक्र है, होनी तो होकर रहती है…आदि घिसी-पिटी बातें तो हैं ही कहने को अगर और कुछ न कहना चाहें तो। गीता भी बड़ी ही कारगर चीज है। समझदार लोग मौके के मुताबिक एकाध आधा-अधूरा श्लोक रटकर ले जाते हैं।
अंतिम साँस अगर अस्पताल में ली हो तो डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं को निरापद रूप से गरियाया जा सकता है- अजी ये डॉक्टर जो क्या हैं कसाई हैं। कसाई में भी इनसे ज्यादा दया होती है। आता-जाता इन्हें कुछ है नहीं, बस मरीज पर एक्सपैरिमेंट करते हैं। मरीज को लटका कर रख देंगे…. मीना के ससुर के साथ यही तो हुआ। तीन दिन तक यहाँ लटका कर ग्लूकोज चढ़ाते रहे। फिर जब हालत और बिगड़ गई तो आनन-फानन में रेफर कर दिया। रास्ते में ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी तो पता चला कि एम्बुलेंस में जो सिलेंडर है वह खाली है। दो किलोमीटर बाद उन्होंने दम तोड़ दिया। ये हाल है…..
मर्लिन मुनरो की महिलाओं को सलाह थी कि फोटो खिंचवाते समय होंठ हल्के-से अधखुले रखे जाएँ तो तस्वीर आकर्षक आती है, ध्यान खींचती है। ऐसी ही एक राय मेरे पास भी है। पूरी महफिल का ध्यान अपनी ओर खींचना हो तो बात को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक खींच कर ले जाइये। अमेरिका का नाम जरूर लें। अमेरिका का जिक्र फोटो खिंचवाते समय होंठों को अधखुला रखने जैसा ही है। लोग आपकी ओर बड़े श्रद्धाभाव से देखने लगते हैं। क्योंकि सब कुछ अमेरिका से ही शुरू होता है और वहाँ जो कुछ भी होता है, सर्वश्रेष्ठ होता है। मातमपुर्सी के मौके पर भी यह तकनीक कारगर है। जब आत्मा वगैरा की बात चल रही हो तो आप सबको धकियाते हुए बीच में कूद पड़िए और निम्नलिखित किस्सा सुना डालिए जो एक बार मैंने कहीं सुना था- हाँ-हाँ, और क्या, आत्मा होती है साहब। अमेरिका के वैज्ञानिकों ने इस बात को सिद्ध किया एक बार। उन्होंने एक प्रयोग किया। एक मरते हुए आदमी को उन्होंने काँच के एयरटाईट कमरे में बंद कर दिया और बाहर बैठ गए दूरबीन-खुर्दबीन और वैज्ञानिक उपकरण लेकर कि शरीर से आत्मा बाहर आए तो उसकी फोटो खींचे। अगर संभव हुआ तो पकड़ कर पूछताछ करें। अब वो तो बड़े दिमाग वाले लोग होते हैं न साहब। बाल की खाल निकालते हैं। तो जी, जरा देर बाद उस आदमी की गरदन एक ओर को लुढ़क गई और ठीक उसी समय शीशा एक जगह से चटख गया। क्या समझे ? मतलब आत्मा निकल गई शीशा तोड़ कर। मानना पड़ा उन्हें कि न सिर्फ आत्मा होती है बल्कि वह अदृश्य और बेहद ताकतवर भी होती है।

बड़ी अजब-गजब बातें कह जाते हैं लोग ऐसे मौकों पर। एक सज्जन कहते पाए गए कि ये बड़े विद्वान और महान आदमी थे इसीलिए मुझे बहुत मानते थे, मेरी बड़ी इज्जत करते थे…..
अब जरा मौसम की बात करें। लोगों की बातें सुन कर यूँ जान पड़ता है जैसे मरने वाले को यह अधिकार होता है कि वह मरने के लिए मनमाफिक मौसम चुन सकता है। आप चाहे जिस मौसम में मरें, लोग उसी को मरने के लिए आदर्श मौसम कह देते हैं। माना कि मौत दिसंबर-जनवरी में हो जाए, कड़ाके की ठंड पड़ रही हो। ऐसे में जाहिर सी बात है कि क्रिया वाले कमरे में सगड़ में आग जल रही होगी। आने वाले लोग कुछ इस तरह की बातें करेंगे- अहा देखो ताईजी, आग सेकने की कैसी बहार कर गईं। सीली लकड़ी भी कितनी अच्छी जल रही है। बड़ी ही धर्मात्मा ठहरी हो ताई, उन्हीं का प्रताप है। वर्ना सगड़ की ऐसी आग अब कहाँ देखने को मिलती है…..और देखो दिन में कैसी चटख धूप है आज-कल। आसमान एक दम नीला, साफ, स्वच्छ जैसा ताई जी का मन था…..और अगर आसमान में बादल हों तो कहिए- ऊपर वाले तक को उनके जाने का दुःख है, उस दिन से आसमान ही नहीं खुला। सूर्य देव भी ताई जी का शोक मना रहे हैं…….. गर्मियों में कोई मरे तो यह भी बड़ा ही देवता और धर्मात्मा टाइप का आदमी होता है और संवेदनशील भी। क्योंकि उसने मरने के लिए गर्मी का मौसम चुना। इस मौसम में सभी को सुविधा रहती है। खास तौर पर क्रिया कर रहे आदमी को नहाने-धोने की बड़ी सहूलियत रहती है। जाड़े-बरसात में यह काम बड़ा कठिन हो जाता है। पापी लोग अक्सर जाड़े बरसात में ही मरते हैं। ऐसे लोग जीते जी तो परेशान करते हैं, मर कर भी दूसरों को चैन नहीं लेने देते।
बारिश के मौसम में जो मरे वह भी ग्रेट आदमी होता है-दादाजी जिस दिन से गए हैं उस दिन से कैसी झमाझम बारिश हो रही है। वर्ना साहब क्या बात कर रहे हैं आप ? सूखा पड़ने के आसार पैदा हो गए थे। कोसी देखी आपने सिकुड़ कर इतनी सी रह गई थी…..बारिश भले ही दादाजी के मरने के हफ्ता भर पहले से हो रही हो, अगल-बगल बैठे लोग कहेंगे-हाँ, बिल्कुल और क्या ! अजी भले आदमी थे, जिन्दगी भर किसी का बुरा नहीं किया तो अंत समय भला काम किए बिना कैसे विदा होते ! देखो बारिश करवा गए।
मौत का एक दिन तय है लेकिन यकीन मानिए, मौसम की इसमें कोई बंदिश नहीं। आप चाहे जितने कुकर्म करके जिस किसी सीजन में मरिए, कहलाएँगे महान और देवता ही। आप जिस दिन मरें, माना उस दिन पास-पड़ोस में किसी महिला का बलात्कार हो जाए या जलजले में आधा शहर तबाह हो जाए तो कहने वाले इसे भी आप ही की इनायत कह सकते हैं उन्हें अगर कुछ और न सूझा कहने को तो, इसमें भी कुछ सकारात्मक चीज खोज निकालेंगे- देखो जनसंख्या नियंत्रण का कैसा कारगर उपाय सुझा गए जाते-जाते। देवता आदमी थे तुम्हारे पिता।

और अंत में एक प्रार्थना कि हे भगवान, तू अगर कहीं है और तेरे चलाए से यह दुनिया चलती है जैसी कि अफवाह है। तो मेरे भाई, वैज्ञानिकों को कभी ऐसा यंत्र मत बनाने देना कि जिससे हम दूसरों के मन की सच्ची बात सुन सकें। तूने मनुष्य से एटम बम बनवाया, मैंने बेमन से ही सही तेरा यह गुनाह बख्शा। मगर दूसरों के मन की सच्ची बात बताने वाली मशीन हरगिज मत बनने देना। हफ्ते भर के अन्दर दुनिया आपस में कट के मर जाएगी। महिलाएँ अपना एक अलग राज्य मांग लेंगीं। तेरे हरम की अप्सराएँ विद्रोह कर देंगी। दुनियाँ कैसी वीरान हो जाएगी ? यार बड़ी विकट स्थिति पैदा हो जाएगी। हम किसी से कहेंगे-भाई साहब, आप बड़े सज्जन आदमी हैं। मशीन के जरिये वह सुनेगा- तुझ जैसा कमीना आदमी मैंने आज तक नहीं देखा। तेरे दस्तखतों से बिल पास होता है, क्या करूँ मजबूरी है तुझे सज्जन कहना। लड़के का बाप कहेगा- नहीं भाई साहब, दहेज, तौबा-तौबा……लड़की का बाप सुनेगा-पाँचेक लाख का ड्राफ्ट तो मिलेगा ही। कहने वाला कहेगा- यार बड़ा दुःख हुआ तुम्हारे पिताजी के देहान्त की खबर सुन कर। मशीन कहेगी- उस बुड़ढ़े को तो बहुत पहले मर जाना चाहिए था। कमीना था साला नम्बर एक का। हम किसी महिला से कहेंगे- मैडम, ये साड़ी आप पर खूब फब रही है और मशीन उसके कान में सच फुसफुसाएगी कि …….
खैर, जाने भी दीजिए। कुल मिला कर हम सब कहीं न कहीं कमीने हैं, या जीवन में कभी न कभी होते हैं। सच यही है, यकीन कीजिए। क्या आपने वही सुना जो मैंने कहा ?

Sunday, May 9, 2010

~ माँ मितै बडुलि लगदी ~

~ माँ मितै बडुलि लगदी ~

जब जब मितै याद तेरी औंदि माँ,
तब तब मितै बडुलि भी लगदी माँ।

तू भी माँ मितै याद करणि होली,
रूणी कथका तेरी जिकुडी होलि।
आंखि तेरि भी माँ रुझणि होलि,
बडुलि त्वै ते भी लगणि होली।

तेरी आंख्यू न सदा खुशी देखि मेरी,
आज वू आंख्यू मा पाणी च तेरी|
मन मा तेरो कुलबुलाट मच्यू होलू,
जिकुडी तेरी सुगबुगहाट करणी होली।

दूधा-भत्ति अर जू बोली मीतै खिलायी,
दुधि बाली गै कन तीन मीतै सुलायी।
कन हूंदो च सुख यू भी तीन नी जाणी|
बस हर दुख म्यार तीन अप्णु जाणी।

कथुका बगत नज़र तीन मेरि उतारी,
अफु भुखि रेकन पुटगि तीन मेरि भ्वारी।
कुशल रंवा हम वाकुण ब्रत तीना धारी,
उम्र तीना घर बणान मा काटी सारी

,
त्यार आंचल मा छुप्य़ू च ब्रह्मांड इन बुदिन,
त्यार हथ सदनि आश्रीवाद कुण ही उठिन।
तेरी खुशियूँ की खातिर करी मीन नौकरी,
निभाणू छौ अब बाल-बच्चो की जिम्मेदारी।

रूणि नी रेई तू तख मेरी माँ,
छौ कुशल मंगल मी इख माँ।
करदू प्रार्थना हथ जोडी मेरी माँ,
राजी खुशी रैई तू तख मेरी माँ।

ओलु छुट्टी दर्शन त्यार मी करलू,
त्यार हथ क स्वाद फिर मी च्खलू।
जख बुललि उख त्वैते मी घुमोलु,
तेरी सुणलु अर अपणी मी सुणोलु।

कनु हूंद भगवान मिल नी जानि,
तु ही छै सब कुछ यू मीन मानि।
मीन भगवान सदेनि त्वैमा देखि,
यां से अगनै मी नी सकदू लेखि।

जब जब मितै याद तेरी औंदि माँ,
तब तब मितै बडुलि भी लगदी माँ।

भोल जब फिर रात खुलाली

भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
धरती मा नयी पौद जमाली (dharti me nayi paudhe jamenge)
पुराना डाला खंगारा ह्वेकि (purane ped sukh ke)
नयी लागुल्युन सारु दयाला (nayi belon ko sahara denge)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला-2
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
इखी ये मातम जन्म्यु मी भी (yahi isi mitti me maine bhi janm liya)
मेरी भी बोटी रै अंग्वाल-2 (meri bhi mutthiyan band hi thi)
भारा खैरी का सरिनी मं भी (dukh ke bojhh mai bhi dhoye)
मी भी हित्युं उन्दरी उकाल-2 (unche niche raston pe mai bhi chala)
डालियुं कु छैल अर बाठों का गारा-2 (pedon ki chhaya or raston ke patthar)
मेरा हिटयां की गवै दयाला (mere chalne ki gawahi denge)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
बरखा बर्खाली घाम चमकला (barish hogi dhup chi chamkegi)
सुख दुःख आना जाना राला-2 (sukh dukh aate aur jate rahenge)
खुच्ल्यो मा हंसदा खेल्दा बेटुला (godi me hanste khelte bachhe)
देखदा देखदा ब्वारी हवे जाला-2 (dekhte dekhte kisi ki bahu ho jayengi)
भोल ये फुलमुंडया सासू बानिकी (kal fir budhe hoke jab saas banengi)
नयी नयी ब्वार्युं रुवाला (nayi nayi bahuwon ko rulayengi)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
बस्ग्याल रुजू ह्युन्द कौन्पू (barsaat me bhiga sardiyon me kaanpa)
मिन भी साईं रुड्युं की मार-2 (garmiyon ki maar maine bhi sahi)
मिल भी बरती ऋतू बसंत (basant ritu maine bhi dekhi)
मी परे भी ऐए मौल्यार-2 (mujhme bhi nayi tajgi aayi)
मिन भी के छै आस कई की-2 (maine bhi kisi ki aas ki thi)
ये डांडा काँठा छविं लगाला (ye jangal parvat uski batein karenge)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
मेरा भी अपडा पर्याँ हर्चिनी (mere apne paraye bhi khoye hain)
मेला खोलो मा अचनचाकी (melon me achanak)
मी भी रोयुं भाकोरा भाकोरी (mai bhi jor jor se roya hun)
आंसू आंख्युं मा रैनी जब तक-2 (aankhon me aansu rahe hain jab tak)
कौथिग यानि विरेन राला-2 (mele aise hi hote rahenge)
नया नया कौथिगेर आला (naye naye mele me ghumne wale aayenge)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)
मिल भी सैनी फुल्ल्वा कांडा (maine bhi phoolon ke kante sahe hain)
गित्वी माला गन्च्यानौ कु-2 (giton ki maala banane ke liye)
जन द्वि एकी गीत मिन भी (ek do git maine bhi gaye)
कई निरुन्दौ हैन्सानाऊ कु-2 (kisi rote huwe ko hansane ke liye)
हैस्दारा जब भोल बिसरी जाला-2 (hansne wale jab kal bhul jayenge)
रोंदारा रवे रवे की सम्लाना राला (rone wale ro ro ke yaad karte rahenge)
मी ता नि रौलू मेरा भूलों तुम दगडी ये गीत राला
(mai to nahi rahunga chhote bhaiyo par tumhare saath mere ye geet rahenge)
भोल जब फिर रात खुलाली (kal jab fir raat khulegi)

Wednesday, May 5, 2010

मेरा गाँव, मेरे लोग




मेरा गाँव, मेरे लोग


उस बार मेरा पाँचवी का इम्तहान था। सामने दाहिनी ओर तीनेक मीलदूर गरगड़ी गाँव के इस्कूल में इम्तहान देना था। हमारे स्कूल से मुझे, शेरुवा और भवान को ले जाना था। जिस दिनइम्तहान देने जाना था, उस दिन ईजा ने मुझे धीरे-धीरे चल-फिर कर सुबह-सुबह तैयार कर दिया। पिठियाँलगाया। गुड़ और घी की शिरनी खिलाई। पास होने का आशीर्वाद दिया और बाज्यू के साथ भेज दिया। रिजल्टनिकला तो मैं पास हो गया। ईजा, बाज्यू बहुत खुश हो गए। बीच वाले ददा सामने के पहाड़ पर ओखलकांडा गाँव केइंटर कालेज में पढ़ाते थे। ईजा उन्हेंदीवानीकहती थी। मुझसे बोली, ‘‘अब तुझे दीवानी पढ़ाएगा। तू ओखलकांडाजाएगा, वहाँ पढ़ेगा। वहाँ बड़ा इस्कूल है। अपने ददा-भौजी के पास रहेगा। भौजी भी तुझसे कुछ ही साल बड़ी है।उसे भी ईजा ही मानना पोथी। वही तुझे खाना खिलाएगी, तेरा ख्याल रखेगी। और हाँ, वहाँ रोना मत। खूब पढ़ना।पढ़ कर कुछ बन जाएगा पोथी।’’
मेरे आँसू बहते देख कर कहती, ‘‘रोएगा तो पढ़ेगा कैसे ? रोते नहीं इजू। पहले निशाश लगता ही है। पढ़ने के लिएजाना ही पड़ता है। फिर वहाँ बोर्डिंग में थोड़ी जा रहा है? अपने ददा-भौजी के पास जाएगा।’’ गलनी का जूनियरहाईस्कूल नजदीक था। लेकिन, ईजा, बाज्यू का कहना था- ओखलकांडा का इस्कूल बड़ा है। फिर वहाँ ददा-भौजी भीहैं। वहीं ठीक है।’’
एक दिन ददा मुझे लेने गए। नई कमीज, नया पेंट पहना। पैरों में कपड़े का सफेद जूता। पिठियाँ, अक्षत, शिरनी। ईजा ने सिर पर हाथ रखा, ‘‘ ईजा, खूब पढ़ना। ददा भौजी का कहना मानना। हाँ ?’’ उसने ओढ़नी कापल्लू दाँतों में दबाया हुआ था। आँसू पल्लू से पोंछ लेती।
बाज्यू ने कहा, ‘‘अब चलो, देर मत करो। देबी, माता-पिता को ढोक दो। पैर छू।’’ मैंने पैर छुए तो बाज्यू बोले, ‘‘अबजा अपने ददा के साथ। खूब पढ़ना। पास होना।’’
मैं ददा के साथ ओखलकांडा की ओर चल पड़ा। खिड़की, दरवाजों और आँगन के कोने से घर वाले और मेरे साथखेलने वाले बच्चे सहमे हुए मुझे जाता हुआ देख रहे थे। छोटा भाई जैंतुवा और पनुदा भी चुपचाप देख रहे थे।
मुझे मायका छोड़ कर जाने वाली बहू-बेटियों का जैसा निशाश लगा हुआ था। घर-गाँव, संगी-साथी सब पीछे छूटरहे थे। मैंने जैड़ की धार के पीछे पलट कर देखा। हमारा मकान और वहाँ खड़े लोग दिखाई दे रहे थे। मुझे पता था, ईजा अब रो रही होगी। फिर हम धार से आगे बढ़ गए। ओट में वे सब ओझल हो गए। खोली, टांडा होते हुए नीचेउतरते गए। गाड़ के किनारे-किनारे घटों (पनचक्की) को पीछे छोड़ते हुए, बाशिंग की घनी झाड़ियों के बीच सेखनस्यूँ में गौला नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ ददा ने अपने जूते उतार कर हाथ में ले लिए और पेंट के पाँयचों कोघुटनों से ऊपर तक मोड़ लिया। मैंने भी वैसा ही किया। ददा ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘पत्थरों पर पैर संभालकर रखना। काई जमी रहती है। बहुत फिसलन होती है।’’ मैं इतनी बड़ी नदी में पहली बार उतरा था। छल-छलबहता पानी देख कर सिर चकराने लगा। पत्थरों पर पैर रपट रहे थे। पानी से मछैन बास रही थी। बीच-बीच मेंउठे पत्थरों पर पैर टिकाते हुए किनारे पर पहुँचे।
नदी पार करके हम बायीं ओर खनस्यूँ की दुकानों और मकानों के बीच से होते हुए ओखलकांडा तक तीन-साढ़े तीनमील का उकाल यानी खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगे। पहले खेत आए, फिर साल और उसके बाद चीड़ का जंगल। चारों ओरचीड़ के पेड़ों की सुई जैसी लंबी नुकीली पत्तियों कापिरोलफैला हुआ था। मैंने एक साथ चीड़ के इतने सारे पेड़पहली बार देखे। हवा चलती और नुकीली पत्तियों से रह-रह कर साँय-साँय की आवाज आती थी। रास्ते मेंजगह-जगह पुराने, कालेस्योंतेमतलब चीड़ के लकड़ीले फल गिरे हुए थे। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में नए स्योंते लगे थे। मैंहाँफता, रुकता, साँस लेता ददा के पीछे-पीछे चलता रहा। रास्ते भर ईजा याद आती रही। खनस्यूँ के शिराणसिरहाने) पहुँच कर सुस्ताने लगे तो मैंने बड़े मोह से सामने अपने गाँव के पहाड़ की ओर देखा। शायद ददा समझगए। उन्होंने हाथ से इशारा करके कहा, ‘‘वहाँ, वह देख बीच में तल्ली सारी के खेत और मिडार की धार दिखाई देरही है। उससे थोड़ा ऊपर वह लंबी, सफेद बाखली। दाहिनी ओर हमारा घर।’’ मेरा मन उड़ कर वहाँ पहुँच गया, अपने घर-आँगन, अपने खेतों में। इस पहाड़ से बहुत दूर हो गया था मेरा गाँव। फिर निशाश लगने लगा। भीतर जाने क्या-क्या उमड़ने-घुमड़ने लगा। सब कुछ याद रहा था। ददा बोले, ‘‘चलो, अब बहुत दूर नहीं है।’’ हम लोगउकाल में फिर चलने लगे।
अचानक चीड़ का वन खत्म हो गया। सामने खेत गए। रास्ते से ऊपर और नीचे खेतों में चौमास की फसलें उगीहुई थी। नीचे एक खेत में बहुत बड़ा हरा-भरा पेड़ खड़ा था। उस पर चिड़ियाँ चहक रही थीं। मैं उसे गौर से देख रहाथा। ददा बोले, ‘‘च्यूरे का पेड़ है।’’ बड़ी काकी ने कभी किसी के लाए हुए च्यूरे के दो-चार फल मुझे भी दिए थे। उनकाअद्भुत स्वाद मुझे याद था। बड़ी काकी ने उनकी गुठलियों से बनाच्यूराक घ्योंयानी च्यूरे का घी दिखा कर कहा था, ‘‘जाड़ों में थोल (होंठ) या हाथ-खुट फट जाने पर इसे लगाते हैं तो ठीक हो जाते हैं। इसमें लगड़ (पूरी) भी पकाते हैं।’’
अच्छा तो यह है च्यूरे का पेड़, मैंने मन ही मन सोचा और ददा के पीछे-पीछे चलता रहा। कई खेत, कुछ दूदिल औरकुछ भीमुल के पेड़ पीछे छूटे। ऊपर मकान थे। अचानक हम मोड़ से आगे आए और ओखलकांडा इंटर कालेज कीटीन की छत वाली इमारत और आसपास के मकान दिखाई देने लगे। ददा ने कहा, ‘‘लो, गए। यही है कालेज।अब तुम यहीं पढ़ोगे।’’
हमारे प्राइमरी स्कूल से कितना बड़ा था वह! हम उसके पिछवाड़े टीचर क्वार्टर में आए। बीच के दो कमरों औरकिचन वाले सेट में ददा-भौजी रहते थे। ददा ने मुझे भौजी को सौंप दिया, ‘‘ये रहा देबी, देवेंद्र। तुमने देखना है इसे।यह पढ़ेगा। देबी प्रणाम करो।’’ मैंने भौजी कोपैलागकहा। शादी के बाद यहाँ आने से पहले भौजी थोड़ा समय गाँवमें रही थीं और हमने अपने धूरे के खेतों में आलू में उकेर भरे थे। हमारे खेतों के उस पार बाँज के पेड़ के नीचे आमाका थान था और उसके भी पार, पहाड़ पर सफेद बकरियों की तरह ओखलकांडा कालेज की इमारतें दिखाई देती थीं।आमा के थान की ओर हाथ जोड़ कर ईजा कहती, ‘‘आमा दैनि भए।’’ मुझसे भी हाथ जुड़वाती। दूर ओखलकांडा कीओर देख कर भौजी से कहती, ‘‘दीवानी वहाँ पढ़ाता है। तू उसके पास ही रहती तो अच्छा रहता। यहाँ यह खेतों काकाम तुझसे कैसे होगा ? आमा से हाथ जोड़ कर कह ‘‘हे आमा, उनसे कह मुझे ले जाएँ।’’ तेरह-चैदह साल की मेरीनानी भौजी ने आमा को हाथ जोड़े। अगली बार ददा आए और भौजी को साथ ले गए।
मैं उसी नानी भौजी के पास गया। ददा पढ़ते रहते थे। उनके पास बहुत किताबें थीं। छोटी-बड़ी। मैं शरमाता, सकुचाता बैठा रहा। भौजी वहाँ के बारे में बताती रही। वहाँ के रहन सहन के बारे में समझाया। मैं कभी कमरेदेखता, कभी बाहर झाँकता। रोशनदान था। किचन में चूल्हे पर खाना पकता था। आगे के कमरे में शिव-पार्वती कीऔर कुछ दूसरी फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी थीं।
किचन के दरवाजे की बगल में अंगूर की बहुत मोटी बेल थी। ददा ने उसे पाल-पोस कर उसे टीन की छत पर चढ़ायाहुआ था। छत पर वह हरी-भरी बेल खूब फैली हुई थी।
ददा मेरे लिए कापियाँ और किताबें ले आए। क्या खुशबू थी उन नई कापी-किताबों में! होल्डर भी, पेंसिल, रबर, पटरी और स्याही की दवात भी। अंग्रेजी की कापी में लाल और नीली लाइनें बनी थीं। एक होल्डर मेंजीनिब लगीथी। ददा ने कहा उससे अंग्रेजी की कापी में लिखोगे। अंग्रेजी ? मैं चौंक गया। अब अंग्रेजी भी पढ़ूँगा? कालेज, पढ़ाई, लड़के, अध्यापक, एडमिशन सबके बारे में सुन-सुन कर भीतर अजीब-अजीब सा कुछ उमड़ने लगता। हूक जैसीउठती। कभी गला गगलसा उठता। कभी घबराहट होने लगती।
शाम ढलने लगी तो ईजा की याद आने लगी। अब मैं कहाँ सोऊँगा ? किसके पास सोऊँगा ? खाने के बाद रात कोसोने लगे तो देखा मेरे लिए भी ददा-भौजी के कमरे में ही एक ओर पटखाट लगाई गई। भौजी ने बिस्तरा बिछायाऔर बोली, ‘‘यहाँ सो जाओ देबी। डरना नहीं। हम भी यही हैं।’’
वह पहली रात थी जब मैं ईजा या बाज्यू के साथ नहीं, अकेला सोया। थका हुआ था, नींद गई। रात में आँखखुली। मैं रजाई के साथ ही खाट से पलट कर नीचे गिरा हुआ था। भौजी मुझे गोद में उठा रही थी। लगा जैसे ईजा केपास हूँ। आँखें बंद करके वैसा ही सोया रहा। भौजी ने गोद में उठा कर लिटाया और अच्छी तरह रजाई उढ़ा दी। बादमें भी कई बार रातों को बिस्तरे से गिरता, गोद के मोह में यों ही पड़ा रहता। भौजी उठती। गोद में उठा कर फिरसुला देती।
सुबह ददा एडमिशन के लिए साथ ले गए। प्रिंसिपल के कमरे में गए। उन्हें बताया, ‘‘मेरा छोटा भाई है।’’ मैंने उन्हेंहाथ जोड़े। बाहर आकर ददा बोले, ‘‘बच्चों से बात करो। मैं अभी आता हूँ।’’ मैं बुरी तरह घबरा गया। किससे बोलूँ ? मेरे संगी-साथी तो सभी गाँव में छूट गए थे- जैंतुवा, पनुदा, पनुवा, लछी, देबी, गोपाल सभी। यहां मैं किसी कोजानता नहीं था। तभी मेरी ही उम्र का एक लड़का पास आया। पूछा, ‘‘तुम मास्साब के भाई हो ? नाम क्या है ?’’ मैंचुप। उसने फिर पूछा। मैं थरथराया, गगलसाया और सकसका कर रो पड़ा। रो ही रहा था कि ददा गए। पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’ बच्चों ने बताया, नाम पूछ रहे थे- यह रोने लगा। ददा ने बताया, ‘‘खनस्यूँ का ब्रजमोहन है। उसे नामबता देना था। रोते नहीं।’’ फिर सामने छठी कक्षा में ले गए। एडमिशन हो गया- देवेंद्र सिंह मेवाड़ी, कक्षा-6 गाँवका देब सिंह अब हो गया।
अगले दिन से पढ़ाई शुरू हो गई। सुबह पूरन सिंह प्रार्थना की घंटी बजाता। कालेज के सामने प्रार्थना होती। फिरकक्षाओं में पढ़ाई शुरू हो जाती। कालेज की बगल से सीढ़ियाँ उतरने के बाद बहुत बड़ा खेल का मैदान था, जिसमेंअध्यापक और लड़के शाम को हॉकी खेलते थे। ददा भी हॉकी खेलते थे। नई हाकियाँ आने पर पुरानी हॉकियाँनीलाम की जाती थीं। उस बार ददा अपने और मेरे लिए हॉकी खरीद लाए।
वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ जीवन का रहन-सहन भी सीखने लगा। ईजा की जगह अब नानी भौजी बात व्यवहार औररहन-सहन सिखाने लगी। उन्होंने समझाया, ‘‘यहाँ साफ-सुथरा रहना पड़ता है। सुबह उठ कर मुँह धोते हैं। दाँतमंजन करते हैं। फिर लोटा ले करके जंगल जाते हैं।
‘‘जंगल ?’’
‘‘हाँ, जंगल। शौच के लिए। शौच के बाद लोटे से पानी शौचते हैं। धोते हैं। फिर किसी साफ जगह की मिट्टी लेकरलोटा माँजते हैं। मिट्टी से हाथ धोते हैं। हाथ साबुन से भी धो लोगे। आगे की डिग्गी पर नहाओगे, साबुन से।नहा-धो कर, ईश्वर को हाथ जोड़ कर पढ़ते हैं।मेरे साथ ही हुए मैं बताती रहूँगी। जंगल भी साथ ही चलोगे। मैंदिखाऊँगी।मेरे लिए यह सब एक नया जीवन था।
यही दिनचर्या बनती गई। कभी-कभी आसपास के चीड़ के जंगल से लकड़ियाँ और सूखे स्यूँते, मतलब ठीठे लेनेजाते। ठीठे सग्गड़ में आग जलाने के काम आते। कभी-कभी पानी नहीं आता तो दांई ओर के जंगल में पुटकियापानी के नौले से पानी भर लाते थे। कुछ दिन बाद छुट्टी के दिन रमुदा के साथ वापस गाँव गया। जाते ही बीमारईजा से चिपट गया। ईजा खुश। गोद में भींच कर बोली, ‘‘म्यर बाज्यू है जालै। अब तू बड़े इस्कूल में पढ़ रहा है। खूबमेहनत कर रहा है ? खूब पढ़ रहा है ? अपने ददा-भौजी का कहना मान रहा है ?’’
मैंहाँ-हाँमें सिर हिलाता रहा।
वह बोली, ‘‘च्यला, खूब मन लगा कर पढ़ना। पढ़ते रहना। हाँ ? किसी से लड़ना नहीं। किसी को गाली मत देना।अपने बड़ों का कहना मानना। ठीक है ?’’ उसके बाद पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है तुझे वहाँ ? तेरे ददा-भौजी तोईजा-बाज्यू जैसे ही हुए पोथी। उनका कहना मानता है ?’ मेरे हाँ कहने पर वह प्यार से भींच लेती। मैंने ईजा को उसनई दुनिया की कितनी जो बातें बताईं- कालेज,मासाब, लड़के, वहाँ का खाना, नहाना-धोना, जंगल जाना, खेलनासबके बारे में। चकित होकर सुनती रहती। मैंने उसे दीवार पर टँगे ददा और भौजी के फोटो के बारे में बताया।बताया कि उस फोटो में ददा और भौजी हू--हू वैसे ही लगते हैं जैसे हैं। जमीन में बिछाई चद्दर भी बिलकुल चद्दरजैसी लगती है।
ईजा उसफोटूके बारे में सोचती रही। फिर बोली, ‘‘कभी मुझे भी दिखाना तो कैसा है वह फोटू।’’
पिताजी अलग खुश। इधर-उधर कहते रहते, ‘‘अब कालेज में पढ़ रहा है देबी। अंग्रेजी भी पढ़ रहा है बल। मेहनतकरेगा तो पढ़ ही लेगा।’’
ईजा-बाज्यू से मिल कर रमुदा के साथ ही वापस कालेज लौट आया। फिर पढ़ाई शुरू हो गई।
कुछ महीने बाद बाज्यू आए। ईजा को ठंडा बहुत सताने लगा था। उन्होंने बताया, ‘‘तेरी ईजा तुझे बहुत याद करतीहै। उसने कहा है, देबी खूब पढ़ना।’’
बग्वाली (दीपावली) के बाद बाज्यू बीमार ईजा को लेकर ठुल ददा, भौजी और गोरु-बाछों के साथ ककोड़ को चलेगए। बीच-बीच में खबर आती, ईजा को कोई आराम नहीं मिल रहा है। बीमारी ठीक नहीं हो रही है। ईजा की बीमारीकी बात मेरे सामने बहुत कम की जाती थी। ईजा शायद खुद कह देती थी कि देबी के सामने मेरी बात मत करना, नहीं तो वह रोएगा, पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा। जो कुछ कान में पड़ जाता, उससेपता लगता था कि ईजा की तबियत ठीक नहीं चल रही है। उसे उपसाँसी (श्वास) भी थी।
उस दिन छुट्टी थी। शायद इतवार था। मैं जंगल-वंगल जाकर, नहा-धो कर घर लौटा तो देख कर हैरान रह गया- ददा ने सुबह-सुबह जाने क्यों अंगूर की बेल काट कर फेंक दी। उसे तो वह भी बहुत अच्छा मानते थे। वहाँ अबखाली दीवार थी, टीन की खाली छत थी। मैं अक्सर टीन की छत पर चढ़ जाता था। उस दिन भी शायद कोई कपड़ासुखाने के लिए छत में गया। शायद पैर रपटा और नीचे गिरते-गिरते बचा। भड़-भड़ सुन कर ददा और भौजी नेआकर देखा। मैं थरथराते हुए नीचे उतरा। ददा ने कहा, ‘‘ऐसी जगह क्यों जाते हो ? अभी गिर जाते तो ?’’ गिरने सेबाल-बाल बच जाने से उनकी साँस में साँस आई।
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Tuesday, May 4, 2010

शिक्षा का रास्ता पेट से होकर जाता है


शिक्षा का रास्ता पेट से होकर जाता है
इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव विकास की कहानी ज्ञान की लेखनी से ही लिखी गई है। आज प्रगति के शिखर को स्पर्श करने वाला मानव, शिक्षा के विविध आयामों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षी परिकल्पनाओं को साकार करने में सक्षम है। तथापि यह भी एक कटु सत्य है कि बच्चों की पारिवारिक परिस्थितियों उनकी शिक्षा में बाधा भी उत्पन्न कर करती है।
परिवार भी सामाजिक संरचना का हिस्सा है। फलतः समाज में होने वाले छोटे-बड़े परिवर्तनों से परिवार भी प्रभावित होते हैं। परिवार यदि सामाजिक ढाँचे का निर्माण करते हैं, तो दूसरी ओर समाज का दायित्व भी इन परिवारों के प्रति पूर्णरूपेण बनता है। वर्तमान समय में हमारा समाज स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित दिखाई देता है। प्रथम- धनी वर्ग, द्वितीय- मध्यम वर्ग, तृतीय- निर्धन वर्ग। कुछ ऐसा ही विभाजन पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर शिक्षा क्षेत्र में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। अंग्रेजी स्कूलों तक उन्ही की पहुँच हो पाती है जो आर्थिक आधार पर खरे उतरते हैं। मोटी आमदनी उनके बच्चों की राह आसान कर देती है। वे अपने बच्चों के लिये तत्परता से कार्य करते हैं। उनकी सजगता उनके बच्चों के सुनहरे भविष्य का निर्माण करती है। इसमें कुछ अनुचित भी नही है।

मेहनत-मजदूरी या फिर दैनिक वेतन पर गुजर-बसर करने वाले अधिसंख्य निर्धन तबके के लिये तो अंग्रेजी स्कूल एक सपना और सरकारी स्कूल एक उलझन साबित होती हैं। ये अभिभावक भी जो बीज परिवार ने अतीत में बोया था, वर्तमान में उसी को काट रहे हैं। क्या करेंगे बच्चों को पढ़ा-लिखा कर ? अपना कामधंधा ही तो आगे चलाना है।……मध्यम वर्ग के परिवार बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं। किंतु यहाँ भी बेटा-बेटी का भेदभाव दिखाई देता है। बेटे को अच्छी शिक्षा देंगे तो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। लड़की तो पराया धन है। उस पर धन खर्च करने से क्या लाभ ? ऊपर से ब्याह भी करना है। थोड़ा बहुत पढ़ ले वही बहुत है। इस पारिवारिक मानसिकता के चलते ही बालिकाओं की शिक्षा बाधित हो रही है।
भले ही शिक्षा का मार्ग पेट भर भोजन के मार्ग से ही क्यों न जाता हो, किंतु यह सत्य है कि मध्यान्ह भोजन व्यवस्था ने बच्चों को स्कूल तक पहुँचाया है। अशिक्षित माता-पिता बच्चों को पढ़ने विद्यालय भेजते तो हैं, किंतु बच्चों की प्रगति के प्रति उदासीन ही रहते हैं। शिक्षा के महत्व को अधिक न समझ पाने के कारण वे शिक्षा को बच्चों के भविष्य से जोड़ कर नहीं देख पाते हैं। विद्यालयों में बच्चों की आये दिन अनुपस्थिति इसी बात की ओर संकेत करती है। घरेलू कार्यों के लिए उन्हें घर में रोक लिया जाता है या फिर पूरी तरह से उनकी शिक्षा रोक दी जाती है। यही कारण है कि प्रति वर्ष विद्यालय छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
कई परिवार ऐसे हैं जहाँ आर्थिक तंगी के चलते घमासान मचा रहता है। माता-पिता का अलगाव, उनमें किसी एक का जीवित न रहना, घरेलू कलह आदि अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करता बचपन वेदना के उस के उस अंधे कूप में जा गिरता है, जहाँ से निकलने की छटपटाहट तो सुनी जा सकती है किंतु समाधान शून्य में कहीं खो जाता है। कुहनी से फटी बनियान, बेतरतीब बाल, सूनी आँखें, रूखे चेहरे भविष्य के प्रति शून्य भाव किसी के भी मन को विचलित कर देगा। मन में प्रश्न उठने लगते हैं, क्या यही हैं हमारे देश का भविष्य ?
मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित निर्धन परिवार में आँखें खोलने वाले ये बच्चे करें भी तो क्या ? सामाजिक न्याय-अन्याय की भाषा इन्हें नहीं आती। इन्हें तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें सुनाने का मन है, लेकिन बाल सुलभ इन बातों को सुनने का समय किसके पास है ? वास्तविक धरातल का कठोर यथार्थ उन्हें किसी बात की अनुमति नहीं देता। उनका निरर्थक पड़ा बस्ता दूसरे दिन की प्रातः तक उसी प्रकार पड़ा रहता है। जीवन की समस्याओं में उलझे उनके अभिभावकों को भी उनका यह बस्ता बोझ ही लगने लगता है।

मदिरापान कर जब उनका पिता उन्हें पीटता है, गालियाँ देता है, उनका बस्ता फेंक देता है या उन्हें घर से बाहर कर देता है तब वे क्या करें ? कैसे कक्षा में दिया गया कार्य करें ? स्कूल जा पाएँगे या नहीं ? यह मानसिक एवं शारीरिक चोट किस अनहोनी की ओर संकेत कर रही है ?
अपवादस्वरूप कई अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिखर तक पहुँचें। किंतु उनके सपने तब चूर-चूर हो जाते हैं, जब हजारों-लाखों की बात होती है। थक हार कर इन मेधावी निर्धन बच्चों की आशा निराशा में परिवर्तित हो जाती है। सरकारी प्रयास कितने सार्थक एवं न्यायपूर्ण क्यों न हों, पारिवारिक परिस्थितियाँ इन पर भारी पड़ती रही हैं। शिक्षा को गंभीरता से न लेना, शिक्षा के महत्व को न समझ पाना, दिन भर की परेशानी से बचने के लिए बच्चों को स्कूल भेजना, छात्रवृत्ति हेतु उत्साह दिखाना, उस राशि का प्रयोग बच्चों के लिए नहीं घरेलू कार्यों के लिए करना आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूँढना शेष है।
पारिवारिक परिस्थितियाँ धनी वर्ग के बच्चों के लिए भी कभी-कभी बाधा बनकर खड़ी हो जाती हैं। छोटे-छोटे बच्चों को संपत्ति की चमक चकाचौंध कर जाती है। भले-बुरे का ज्ञान मिट जाता है और वे शिक्षा से विमुख होकर कुमार्गी बन जाते हैं। अभिभावकों को तब समझ आती है जब उनके बच्चों के भविष्य का मार्ग पूरी तरह बंद हो चुका होता है। पाश्चात्य सभ्यता का विपरीत असर कई परिवारों में देखने को मिलता है। बच्चों की पढ़ाई के समय परिवार के सदस्य दूरदर्शन पर अपने मनपसन्द कार्यक्रम देखने लगते हैं। घर का वातावरण सिनेमा हॉल में बदल जाता है। बच्चों का भविष्य, उनकी प्रगति सबकुछ शोरगुल में डूब जाता है।
ग्रामीण परिवारों में शिक्षा वहाँ की मान्यताओं, भौगोलिक परिस्थितियों तथा कृषि कार्यों की आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होती हैं। घर में कार्य की अधिकता के आधार पर बच्चों का स्कूल न जाना स्वतः ही तय हो जाया करता है। वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों में शिक्षा के प्रति उत्साह देखा जा सकता है, तथापि शिक्षा सहमति-असहमति के मध्य देखी जा सकती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैसी पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं उसी के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है। जटिल पारिवारिक परिस्थितियाँ श्क्षिा के मार्ग को बाधित करती हैं और अनुकूल पारिवारिक परिस्थितियाँ शिक्षा के मार्ग को सुगम बना देती हैं। किसी भी परिस्थिति में निर्धन वर्ग को बहुत कुछ सहना पड़ता है।
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Monday, May 3, 2010

गंगा


गंगा



‘‘कहाँ चली गयी थी तू, मेरे को बताया भी नहीं, मेरे से मिल कर क्यूँ नहीं गई, मुझे अच्छा नहीं लगा।’’ भरी दोपहरी में ऐसे ही अनगिनत सवालों कि बौछार में भींग रही थी मैं और इस बरसने वाली बदली का नाम था ‘गंगा’।
अल्मोड़ा बाजार के सबसे व्यस्त चौराहों में से एक, शिब्बन पान वालों की दुकान के सामने से मैं गुजर रही थी कि अचानक गंगा मिल गयी। हाथ में एक बड़ा सा बैग और इस उमस भरी गर्मी में भी स्वेटर पहने, छाता पकड़े अपनी मूल पहाड़ी छवि के साथ उसने मुझे नमस्ते का इशारा भर किया और मेरे इतने नजदीक आ गयी कि बस गले लगने की ही देर थी। लगभग दो साल बाद वो मुझे मिली थी। उसे देख कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, मगर अपनी टीचरों वाली अकड़ और शहरी दिखावे में जकड़ी मैं अपनी खुशी का इज़हार नहीं कर पा रही थी। मैं बस इतना ही पूछ पायी, ‘‘कैसी हो गंगा’’ और वो न जाने कब से भरी बैठी थी कि मैं मिल जाऊँ और वो मुझ पर बरस पड़े। आप और तुम जैसे औपचारिक शब्दों से परे वो मुझ से इस तरह बात कर रही थी कि मानो मैं उसकी बचपन की सहेली हूँ, जो उसे बिन बताये ही ससुराल चली गयी। अभी यह मिलन चल ही रहा था कि गंगा कि आमा ने आवाज लगाई, ‘‘जल्दी चल नहीं तो जीप नहीं मिलेगी।’’ और वो सवालों का बचा हुआ गुबार मन में समेटे चली गयी। ‘‘अब तू गाँव कब आएगी,’’ उसने जाते-जाते पूछा और मैं बस मुस्करा दी। मेरे लिए इस उमस भरे माहौल में ये दो चार पल की मुलाकात एक ठण्डे, ताजे हवा के झोंके जैसी थी, जिसने वक्त की किताब के दो साल पुराने पन्ने पलट दिये थे।
बुराँश, चीड़ और बाँज के जंगलों के बीच अल्मोड़ा से लगभग 35 किमी. दूरी पर एक छोटा सा पहाड़ी गाँव है ‘सल्ला’, पहली बार जिसका नाम सुनकर मुझे बचपन के खेल सल्ला-कुट्टी की याद आ गयी थी। यहाँ से हिमालय की बर्फीली चोटियाँ इतनी करीब लगती हैं, मानो छूते ही हथेली पर फिसल जाएँगी। मगर मुझे वो हमेशा सौफ्टी जैसी लगती थी। मन करता था कि ज़बान निकालूँ और जरा सी चाट लूँ।
खैर इस कुदरत के नजारों से निकल कर बात करते है गंगा की। मेरी नई-नई नौकरी और गाँव का पहला अनुभव था। मन में जोश भी कुछ ऐसा था, जैसे ‘नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है’ वाली कहावत और इसी कहावत को सच करने की ठानी हमारी सी.आर. सी. समन्वयक ने, जिसका रौब-दाब अपने लिये किसी मिनिस्टर से कम न था और मेरे जैसे टीचर काफी हद तक उनके दिये गए ए.बी.सी.डी. आदि ग्रेड की कृपा दृष्टि पर ही आश्रित थे। एक दिन वो स्कूल आई और मेरी तारीफों की पुल बाँधते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे लिये एक चैलेंज है।’’ चैलेंज शब्द सुन कर हम जोश से भर गये, जैसे सूखे पहलवान को कोई रुस्तम समझ ले। वो बोली, मेरे पूरे संकुल में एक भी ड्रॉप आउट बच्चा नहीं है। बस एक लड़की है 13 साल की गंगा। गंगा स्कूल नहीं आती। हमारे अधिकारी सभी समझा चुके हैं, लेकिन वो विद्यालय आने को तैयार नहीं है। जब भी उसे स्कूल आने को कहो तो वो दराँती लेकर जंगल में भाग जाती है। उसका कहना है कि अगर उसे स्कूल भेजा तो वो अपनी जान दे देगी। अगर तुम उसे स्कूल ले आई तो ये एक बड़ी उपलब्धि होगी।
वो तो चैलेंज का डमरू थमा कर चली गयी और इस डमरू की डम-डम मेरे दिमाग में गूँजने लगी। मैं भी बचपन में अक्सर सोचती थी कि मेरे स्कूल की बिल्डिंग गिर जाए और स्कूल जाने से मुक्ति मिले। न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी और आज गंगा के मन में भी स्कूल के लिए वही तिरस्कार दिखाई दे रहा है। न जाने कैसे हमारे स्कूल जेल में बदल गये, जिससे बच्चों को डर लगने लगा।
खैर साहब, शाम को मैं गंगा के घर गई। मेरे साथ मेरी प्रधानाध्यापिका भी थीं। घर स्कूल से कुछ दूर था। उसके घर के आगे गाय, बकरियाँ बँधी थीं। पटालों की छत, मिट्टी से लीपी गई दीवारें। घर के चारों तरफ सुन्दर खेत, जिन्हें देख कर लगा कि इस परिवार को घर से ज्यादा खेत प्यारे हैं। गंगा अक्सर अध्यापिका को देखकर छुप जाती थी, मगर वो मुझे पहचान नहीं पाई, शायद इसीलिए अपनी सीढ़ी पर खड़ी रही। प्रधानाध्यापिका पड़ोसी से बात करने के लिए रुक गईं थी। गंगा कद-काठी में मेरे बराबर या शायद मुझसे लम्बी थी। वो मुझे काफी बड़ी लग रही थी। मैंने गंगा से कहा कि मैं स्कूल की नई मैडम हूँ। मुझे स्कूल में कुछ क्यारियाँ बनानी हैं। क्या तुम स्कूल आकर मेरी कुछ मदद कर दोगी ? वो बस टुकुर-टुकुर मुझे देखती रही एकदम खामोश। मैं वापस आ गई। मेरा सारा जोश काफूर हो गया था। मैंने खुद को यह कह कर समझा लिया कि जब बड़े अधिकारी कुछ नहीं कर पाए तो मैं किस खेत की मूली हूँ।
अगले दिन जैसे ही बस से उतर कर मैं स्कूल के गेट पर पहुँची तो देखा गंगा अपने छोटे भाई, जो हमारे यहाँ आँगनबाड़ी में पढ़ता था, के साथ खड़ी मुस्करा रही है। उसके हाथों में फूल थे। उसने मुझे नमस्ते किया और बोली-‘‘मैं आ गई मैडम।’’
मैं गंगा को हमेशा अपने साथ रखती थी। वो क्यारी बनाने में मेरी मदद करने लगी और कभी-कभी कक्षा कक्ष को सजाने व लाइब्रेरी को ठीक करने में मेरा हाथ बँटाती थी। धीरे-धीरे स्कूल की कुछ लड़कियों से उसकी दोस्ती हो गई और वो कभी-कभी कक्षा में भी उनके साथ बैठने लगी। वो बच्चों के साथ खेलती नहीं थी और न ही उसे स्कूल में खाना खाना पसंद था।
मैंने एक दिन गंगा को एक किताब पढ़ने को कहा। मगर ये देखकर मैं हैरान हो गई कि गंगा अक्षर तक नहीं पहचान पा रही थी और न ही उसे गिनती आती थी। अंग्रेजी तो दूर की बात थी, कक्षा पाँच में पढ़ने वाली गंगा सच्चे शब्दों में निरक्षर थी। मैंने गंगा को कक्षा से अलग अपने पास बैठाकर पढ़ाना शुरू किया और शब्दों व अंकों की पहचान करानी शुरू की। गंगा का मन भी पढ़ाई में लगने लगा था। मगर वो अन्य बच्चों के साथ पढ़ना पसंद नहीं करती थी। स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया और गंगा ने सारी तैयारियों में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। बच्चों को तैयार करवाया। उसने खुद भी साड़ी पिछौड़ा पहना था। मगर उसने बच्चों के साथ नाच नहीं किया। वो तो झोड़े में मगन थी। बीच में हुड़का बजाने वाला ताल दे रहा था और गोल घेरे में गाँव की महिलाएँ पिछौड़ा पहने गा रही थीं। और उन्हीं के साथ थिरक रही थी हमारी गंगा।
मैंने सभी मेहमानों से गंगा का परिचय करवाया और बताया कि किस तरह गंगा सालों बाद स्कूल लौटी। सभी ने गंगा की तारीफ की। पर कार्यक्रम का परदा गिरते ही एक दूसरे राज का पर्दा उठ गया, जब सी.आर. सी. समन्वयक ने डाँट लगाते हुए बताया कि मैंने गंगा के बारे में सबको सच बताकर अनचाहे ही उन्हें मुसीबत में डाल दिया है। दरअसल सी.आर.सी. केन्द्र के स्कूल में गंगा नाम विधिवत लिखा हुआ था और वो कक्षा पाँच की नियमित छात्रा थी। सालों से कागजों का पेट ऐसे ही भरा जा रहा था। जबकि वास्तव में सच ये था कि गंगा लम्बे समय से स्कूल ही नहीं गई थी।
दोष सी.आर.सी. का भी नहीं था। ऊपर से छात्र संख्या को लेकर इतना दबाव होता है कि व्यक्ति कुछ भी करने को नहीं झिझकता। हर कदम पर एक स्कूल और गाँव में 15-20 बच्चे। आखिर छात्र संख्या को लेकर शिक्षक क्या करे ? खैर ये बुद्धिमानों के बनाये नियम हैं। हमारी क्या मजाल जो अंगुली उठाएँ ? सरकार कहती है जनसंख्या कम करो और हमारे अधिकारी कहते हैं संख्या बढ़ाओ। अब इस समस्या से तो भगवान ही निपटे।
गंगा हर काम में बहुत होशियार थी। वो चित्र भी बड़े सुन्दर बनाती थी। खेती-बाड़ी की भी अच्छी जानकारी रखती थी। बस उसे पढ़ने-लिखने में थोड़ी दिक्कत थी। और इसी वजह से शिक्षकों के स्नेह, विशेष ध्यान और उपेक्षा का शिकार होकर गंगा आज ड्रॉप आऊट बच्चों की फेहरिसत में पहुँच गई थी। कुछ ही समय बाद मेरा ट्रांस्फर हो गया। गंगा मेरे जाने के बाद हमेशा के लिए स्कूल से वापस लौट गई पर कई सवाल आज तक मेरे ज़हन में घूम रहे हैं। आखिर पाँच वर्षों तक स्कूल जाकर भी गंगा निरक्षर क्यों है? न जाने कितनी गंगाएँ मात्र कागजों पर बह रही हैं और हम दुनिया को अपनी शानदार सफलता के पुलिन्दे दिखा रहे हैं। नन्हें ख्वाबों के मुर्दाघरों में बदल चुके इन स्कूलों में न जाने कितनी कल्पनाएँ रोज दम तोड़ रही हैं। कितने ख्वाब रोज आत्महत्याएँ कर रहे हैं। क्या यही वो जगह है जिनके लिए कैफी आजमी कह गए थे-
हुआ सबेरा फिर अदब सेआसमान अपना सर झुका रहा हैकि बच्चा स्कूल जा रहा है।