Thursday, May 13, 2010

ऋषि से बने योद्धा

ऋषि से बने योद्धा


ऋग्वेद और पुराण की कथा में भृगु वंश का कई स्थान पर वर्णन किया गया है। इन्हीं के वंशज थे परशुराम। वेदऋषि जमदग्नि इनके पिता और माता थीं रेणुका। वैशाख शुक्ल तृतीया, यानी अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपने पिता से वेदशास्त्र और धनुर्विद्या की दक्षता प्राप्त कर ली। आगे कविकुल चायमान से मल्लयुद्ध सीखा। वे शिवजी को प्रसन्न करने के लिए गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने चले गए। अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दिव्यास्त्रों की दीक्षा के साथ परशु और त्रयम्बक दंड भी प्रदान किया और असुरों से मुक्त करने का आशीर्वाद भी। भृगुवंशी व हैहयवंशी क्षत्रियों के बीच पीढि़यों से शत्रुता थी। हैहयवंश में ही सहस्रबाहु अर्जुन का जन्म हुआ, जिसकी वीरता की चर्चा चारों ओर थी।
युद्ध विद्या में पारंगत होने के बाद शिवजी ने परशुराम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। कई दिनों तक चले द्वन्द्व युद्ध के दौरान एक दिन त्रिशूल का वार बचाते हुए परशुराम ने शिव के मस्तक पर फरसे से प्रहार कर दिया। शिष्य के इस युद्ध कौशल से गद्गद होकर गुरु शंकर ने परशुराम को गले लगा लिया। इसके बाद शिवजी के अनन्त नामों में एक नाम 'खडपरशु' भी जुड़ गया।
इधर, सहस्रबाहु अर्जुन के अत्याचार और उत्पीड़न से प्रजा त्रस्त हो रही थी। एक दिन वह परशुराम की खोज में जमदग्नि ऋषि के आश्रम पहुंच गया। परशुराम की अनुपस्थिति में सहस्रबाहु ने संपूर्ण आश्रम को जला दिया और वहां बंधी कामधेनु गाय को अपने साथ राजमहल ले गया। यह गाय ऋषि को इंद्र से मिली थी। जब परशुराम आश्रम लौटे, तो उसके नृशंस कृत्य से अवगत हुए। वे अकेले ही महिष्मती नगरी की ओर चल दिए। परशुराम ने राजमहल के भीतर घुसकर उन्होंने अपने फरसे से अर्जुन की सहस्र भुजाएं काट डाली। कुछ ही समय बाद सहस्रबाहु के पुत्रों, पौत्रों और कई अहंकारी क्षत्रिय राजाओं ने मिलकर जमदग्नि आश्रम पर फिर से हमला बोल दिया और उनका वध कर दिया। सांयकाल जब परशुराम आश्रम लौटे, तो पिता का शव देखा। वे तुरंत महिष्मती की ओर चल पड़े। उनके कंधे पर पिता का शव था, तो पीछे थीं विलाप करती हुईं उनकी माता रेणुका। उन्होंने क्रोधित होकर क्षत्रियों का समूल नाश कर दिया। इसके बाद उन्होंने पितृ तर्पण और श्राद्ध क्रिया की। पितरों की आज्ञानुसार परशुराम ने अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया। इसके बाद वे दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए। यहीं सह्याद्रि पर्वत पर उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर भड़ौंच से कन्या- कुमारी तक का संपूर्ण समुद्रगत प्रदेश समुद्र से दान भेंट में प्राप्त किया।

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