Wednesday, May 5, 2010

मेरा गाँव, मेरे लोग




मेरा गाँव, मेरे लोग


उस बार मेरा पाँचवी का इम्तहान था। सामने दाहिनी ओर तीनेक मीलदूर गरगड़ी गाँव के इस्कूल में इम्तहान देना था। हमारे स्कूल से मुझे, शेरुवा और भवान को ले जाना था। जिस दिनइम्तहान देने जाना था, उस दिन ईजा ने मुझे धीरे-धीरे चल-फिर कर सुबह-सुबह तैयार कर दिया। पिठियाँलगाया। गुड़ और घी की शिरनी खिलाई। पास होने का आशीर्वाद दिया और बाज्यू के साथ भेज दिया। रिजल्टनिकला तो मैं पास हो गया। ईजा, बाज्यू बहुत खुश हो गए। बीच वाले ददा सामने के पहाड़ पर ओखलकांडा गाँव केइंटर कालेज में पढ़ाते थे। ईजा उन्हेंदीवानीकहती थी। मुझसे बोली, ‘‘अब तुझे दीवानी पढ़ाएगा। तू ओखलकांडाजाएगा, वहाँ पढ़ेगा। वहाँ बड़ा इस्कूल है। अपने ददा-भौजी के पास रहेगा। भौजी भी तुझसे कुछ ही साल बड़ी है।उसे भी ईजा ही मानना पोथी। वही तुझे खाना खिलाएगी, तेरा ख्याल रखेगी। और हाँ, वहाँ रोना मत। खूब पढ़ना।पढ़ कर कुछ बन जाएगा पोथी।’’
मेरे आँसू बहते देख कर कहती, ‘‘रोएगा तो पढ़ेगा कैसे ? रोते नहीं इजू। पहले निशाश लगता ही है। पढ़ने के लिएजाना ही पड़ता है। फिर वहाँ बोर्डिंग में थोड़ी जा रहा है? अपने ददा-भौजी के पास जाएगा।’’ गलनी का जूनियरहाईस्कूल नजदीक था। लेकिन, ईजा, बाज्यू का कहना था- ओखलकांडा का इस्कूल बड़ा है। फिर वहाँ ददा-भौजी भीहैं। वहीं ठीक है।’’
एक दिन ददा मुझे लेने गए। नई कमीज, नया पेंट पहना। पैरों में कपड़े का सफेद जूता। पिठियाँ, अक्षत, शिरनी। ईजा ने सिर पर हाथ रखा, ‘‘ ईजा, खूब पढ़ना। ददा भौजी का कहना मानना। हाँ ?’’ उसने ओढ़नी कापल्लू दाँतों में दबाया हुआ था। आँसू पल्लू से पोंछ लेती।
बाज्यू ने कहा, ‘‘अब चलो, देर मत करो। देबी, माता-पिता को ढोक दो। पैर छू।’’ मैंने पैर छुए तो बाज्यू बोले, ‘‘अबजा अपने ददा के साथ। खूब पढ़ना। पास होना।’’
मैं ददा के साथ ओखलकांडा की ओर चल पड़ा। खिड़की, दरवाजों और आँगन के कोने से घर वाले और मेरे साथखेलने वाले बच्चे सहमे हुए मुझे जाता हुआ देख रहे थे। छोटा भाई जैंतुवा और पनुदा भी चुपचाप देख रहे थे।
मुझे मायका छोड़ कर जाने वाली बहू-बेटियों का जैसा निशाश लगा हुआ था। घर-गाँव, संगी-साथी सब पीछे छूटरहे थे। मैंने जैड़ की धार के पीछे पलट कर देखा। हमारा मकान और वहाँ खड़े लोग दिखाई दे रहे थे। मुझे पता था, ईजा अब रो रही होगी। फिर हम धार से आगे बढ़ गए। ओट में वे सब ओझल हो गए। खोली, टांडा होते हुए नीचेउतरते गए। गाड़ के किनारे-किनारे घटों (पनचक्की) को पीछे छोड़ते हुए, बाशिंग की घनी झाड़ियों के बीच सेखनस्यूँ में गौला नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ ददा ने अपने जूते उतार कर हाथ में ले लिए और पेंट के पाँयचों कोघुटनों से ऊपर तक मोड़ लिया। मैंने भी वैसा ही किया। ददा ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘पत्थरों पर पैर संभालकर रखना। काई जमी रहती है। बहुत फिसलन होती है।’’ मैं इतनी बड़ी नदी में पहली बार उतरा था। छल-छलबहता पानी देख कर सिर चकराने लगा। पत्थरों पर पैर रपट रहे थे। पानी से मछैन बास रही थी। बीच-बीच मेंउठे पत्थरों पर पैर टिकाते हुए किनारे पर पहुँचे।
नदी पार करके हम बायीं ओर खनस्यूँ की दुकानों और मकानों के बीच से होते हुए ओखलकांडा तक तीन-साढ़े तीनमील का उकाल यानी खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगे। पहले खेत आए, फिर साल और उसके बाद चीड़ का जंगल। चारों ओरचीड़ के पेड़ों की सुई जैसी लंबी नुकीली पत्तियों कापिरोलफैला हुआ था। मैंने एक साथ चीड़ के इतने सारे पेड़पहली बार देखे। हवा चलती और नुकीली पत्तियों से रह-रह कर साँय-साँय की आवाज आती थी। रास्ते मेंजगह-जगह पुराने, कालेस्योंतेमतलब चीड़ के लकड़ीले फल गिरे हुए थे। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में नए स्योंते लगे थे। मैंहाँफता, रुकता, साँस लेता ददा के पीछे-पीछे चलता रहा। रास्ते भर ईजा याद आती रही। खनस्यूँ के शिराणसिरहाने) पहुँच कर सुस्ताने लगे तो मैंने बड़े मोह से सामने अपने गाँव के पहाड़ की ओर देखा। शायद ददा समझगए। उन्होंने हाथ से इशारा करके कहा, ‘‘वहाँ, वह देख बीच में तल्ली सारी के खेत और मिडार की धार दिखाई देरही है। उससे थोड़ा ऊपर वह लंबी, सफेद बाखली। दाहिनी ओर हमारा घर।’’ मेरा मन उड़ कर वहाँ पहुँच गया, अपने घर-आँगन, अपने खेतों में। इस पहाड़ से बहुत दूर हो गया था मेरा गाँव। फिर निशाश लगने लगा। भीतर जाने क्या-क्या उमड़ने-घुमड़ने लगा। सब कुछ याद रहा था। ददा बोले, ‘‘चलो, अब बहुत दूर नहीं है।’’ हम लोगउकाल में फिर चलने लगे।
अचानक चीड़ का वन खत्म हो गया। सामने खेत गए। रास्ते से ऊपर और नीचे खेतों में चौमास की फसलें उगीहुई थी। नीचे एक खेत में बहुत बड़ा हरा-भरा पेड़ खड़ा था। उस पर चिड़ियाँ चहक रही थीं। मैं उसे गौर से देख रहाथा। ददा बोले, ‘‘च्यूरे का पेड़ है।’’ बड़ी काकी ने कभी किसी के लाए हुए च्यूरे के दो-चार फल मुझे भी दिए थे। उनकाअद्भुत स्वाद मुझे याद था। बड़ी काकी ने उनकी गुठलियों से बनाच्यूराक घ्योंयानी च्यूरे का घी दिखा कर कहा था, ‘‘जाड़ों में थोल (होंठ) या हाथ-खुट फट जाने पर इसे लगाते हैं तो ठीक हो जाते हैं। इसमें लगड़ (पूरी) भी पकाते हैं।’’
अच्छा तो यह है च्यूरे का पेड़, मैंने मन ही मन सोचा और ददा के पीछे-पीछे चलता रहा। कई खेत, कुछ दूदिल औरकुछ भीमुल के पेड़ पीछे छूटे। ऊपर मकान थे। अचानक हम मोड़ से आगे आए और ओखलकांडा इंटर कालेज कीटीन की छत वाली इमारत और आसपास के मकान दिखाई देने लगे। ददा ने कहा, ‘‘लो, गए। यही है कालेज।अब तुम यहीं पढ़ोगे।’’
हमारे प्राइमरी स्कूल से कितना बड़ा था वह! हम उसके पिछवाड़े टीचर क्वार्टर में आए। बीच के दो कमरों औरकिचन वाले सेट में ददा-भौजी रहते थे। ददा ने मुझे भौजी को सौंप दिया, ‘‘ये रहा देबी, देवेंद्र। तुमने देखना है इसे।यह पढ़ेगा। देबी प्रणाम करो।’’ मैंने भौजी कोपैलागकहा। शादी के बाद यहाँ आने से पहले भौजी थोड़ा समय गाँवमें रही थीं और हमने अपने धूरे के खेतों में आलू में उकेर भरे थे। हमारे खेतों के उस पार बाँज के पेड़ के नीचे आमाका थान था और उसके भी पार, पहाड़ पर सफेद बकरियों की तरह ओखलकांडा कालेज की इमारतें दिखाई देती थीं।आमा के थान की ओर हाथ जोड़ कर ईजा कहती, ‘‘आमा दैनि भए।’’ मुझसे भी हाथ जुड़वाती। दूर ओखलकांडा कीओर देख कर भौजी से कहती, ‘‘दीवानी वहाँ पढ़ाता है। तू उसके पास ही रहती तो अच्छा रहता। यहाँ यह खेतों काकाम तुझसे कैसे होगा ? आमा से हाथ जोड़ कर कह ‘‘हे आमा, उनसे कह मुझे ले जाएँ।’’ तेरह-चैदह साल की मेरीनानी भौजी ने आमा को हाथ जोड़े। अगली बार ददा आए और भौजी को साथ ले गए।
मैं उसी नानी भौजी के पास गया। ददा पढ़ते रहते थे। उनके पास बहुत किताबें थीं। छोटी-बड़ी। मैं शरमाता, सकुचाता बैठा रहा। भौजी वहाँ के बारे में बताती रही। वहाँ के रहन सहन के बारे में समझाया। मैं कभी कमरेदेखता, कभी बाहर झाँकता। रोशनदान था। किचन में चूल्हे पर खाना पकता था। आगे के कमरे में शिव-पार्वती कीऔर कुछ दूसरी फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी थीं।
किचन के दरवाजे की बगल में अंगूर की बहुत मोटी बेल थी। ददा ने उसे पाल-पोस कर उसे टीन की छत पर चढ़ायाहुआ था। छत पर वह हरी-भरी बेल खूब फैली हुई थी।
ददा मेरे लिए कापियाँ और किताबें ले आए। क्या खुशबू थी उन नई कापी-किताबों में! होल्डर भी, पेंसिल, रबर, पटरी और स्याही की दवात भी। अंग्रेजी की कापी में लाल और नीली लाइनें बनी थीं। एक होल्डर मेंजीनिब लगीथी। ददा ने कहा उससे अंग्रेजी की कापी में लिखोगे। अंग्रेजी ? मैं चौंक गया। अब अंग्रेजी भी पढ़ूँगा? कालेज, पढ़ाई, लड़के, अध्यापक, एडमिशन सबके बारे में सुन-सुन कर भीतर अजीब-अजीब सा कुछ उमड़ने लगता। हूक जैसीउठती। कभी गला गगलसा उठता। कभी घबराहट होने लगती।
शाम ढलने लगी तो ईजा की याद आने लगी। अब मैं कहाँ सोऊँगा ? किसके पास सोऊँगा ? खाने के बाद रात कोसोने लगे तो देखा मेरे लिए भी ददा-भौजी के कमरे में ही एक ओर पटखाट लगाई गई। भौजी ने बिस्तरा बिछायाऔर बोली, ‘‘यहाँ सो जाओ देबी। डरना नहीं। हम भी यही हैं।’’
वह पहली रात थी जब मैं ईजा या बाज्यू के साथ नहीं, अकेला सोया। थका हुआ था, नींद गई। रात में आँखखुली। मैं रजाई के साथ ही खाट से पलट कर नीचे गिरा हुआ था। भौजी मुझे गोद में उठा रही थी। लगा जैसे ईजा केपास हूँ। आँखें बंद करके वैसा ही सोया रहा। भौजी ने गोद में उठा कर लिटाया और अच्छी तरह रजाई उढ़ा दी। बादमें भी कई बार रातों को बिस्तरे से गिरता, गोद के मोह में यों ही पड़ा रहता। भौजी उठती। गोद में उठा कर फिरसुला देती।
सुबह ददा एडमिशन के लिए साथ ले गए। प्रिंसिपल के कमरे में गए। उन्हें बताया, ‘‘मेरा छोटा भाई है।’’ मैंने उन्हेंहाथ जोड़े। बाहर आकर ददा बोले, ‘‘बच्चों से बात करो। मैं अभी आता हूँ।’’ मैं बुरी तरह घबरा गया। किससे बोलूँ ? मेरे संगी-साथी तो सभी गाँव में छूट गए थे- जैंतुवा, पनुदा, पनुवा, लछी, देबी, गोपाल सभी। यहां मैं किसी कोजानता नहीं था। तभी मेरी ही उम्र का एक लड़का पास आया। पूछा, ‘‘तुम मास्साब के भाई हो ? नाम क्या है ?’’ मैंचुप। उसने फिर पूछा। मैं थरथराया, गगलसाया और सकसका कर रो पड़ा। रो ही रहा था कि ददा गए। पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’ बच्चों ने बताया, नाम पूछ रहे थे- यह रोने लगा। ददा ने बताया, ‘‘खनस्यूँ का ब्रजमोहन है। उसे नामबता देना था। रोते नहीं।’’ फिर सामने छठी कक्षा में ले गए। एडमिशन हो गया- देवेंद्र सिंह मेवाड़ी, कक्षा-6 गाँवका देब सिंह अब हो गया।
अगले दिन से पढ़ाई शुरू हो गई। सुबह पूरन सिंह प्रार्थना की घंटी बजाता। कालेज के सामने प्रार्थना होती। फिरकक्षाओं में पढ़ाई शुरू हो जाती। कालेज की बगल से सीढ़ियाँ उतरने के बाद बहुत बड़ा खेल का मैदान था, जिसमेंअध्यापक और लड़के शाम को हॉकी खेलते थे। ददा भी हॉकी खेलते थे। नई हाकियाँ आने पर पुरानी हॉकियाँनीलाम की जाती थीं। उस बार ददा अपने और मेरे लिए हॉकी खरीद लाए।
वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ जीवन का रहन-सहन भी सीखने लगा। ईजा की जगह अब नानी भौजी बात व्यवहार औररहन-सहन सिखाने लगी। उन्होंने समझाया, ‘‘यहाँ साफ-सुथरा रहना पड़ता है। सुबह उठ कर मुँह धोते हैं। दाँतमंजन करते हैं। फिर लोटा ले करके जंगल जाते हैं।
‘‘जंगल ?’’
‘‘हाँ, जंगल। शौच के लिए। शौच के बाद लोटे से पानी शौचते हैं। धोते हैं। फिर किसी साफ जगह की मिट्टी लेकरलोटा माँजते हैं। मिट्टी से हाथ धोते हैं। हाथ साबुन से भी धो लोगे। आगे की डिग्गी पर नहाओगे, साबुन से।नहा-धो कर, ईश्वर को हाथ जोड़ कर पढ़ते हैं।मेरे साथ ही हुए मैं बताती रहूँगी। जंगल भी साथ ही चलोगे। मैंदिखाऊँगी।मेरे लिए यह सब एक नया जीवन था।
यही दिनचर्या बनती गई। कभी-कभी आसपास के चीड़ के जंगल से लकड़ियाँ और सूखे स्यूँते, मतलब ठीठे लेनेजाते। ठीठे सग्गड़ में आग जलाने के काम आते। कभी-कभी पानी नहीं आता तो दांई ओर के जंगल में पुटकियापानी के नौले से पानी भर लाते थे। कुछ दिन बाद छुट्टी के दिन रमुदा के साथ वापस गाँव गया। जाते ही बीमारईजा से चिपट गया। ईजा खुश। गोद में भींच कर बोली, ‘‘म्यर बाज्यू है जालै। अब तू बड़े इस्कूल में पढ़ रहा है। खूबमेहनत कर रहा है ? खूब पढ़ रहा है ? अपने ददा-भौजी का कहना मान रहा है ?’’
मैंहाँ-हाँमें सिर हिलाता रहा।
वह बोली, ‘‘च्यला, खूब मन लगा कर पढ़ना। पढ़ते रहना। हाँ ? किसी से लड़ना नहीं। किसी को गाली मत देना।अपने बड़ों का कहना मानना। ठीक है ?’’ उसके बाद पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है तुझे वहाँ ? तेरे ददा-भौजी तोईजा-बाज्यू जैसे ही हुए पोथी। उनका कहना मानता है ?’ मेरे हाँ कहने पर वह प्यार से भींच लेती। मैंने ईजा को उसनई दुनिया की कितनी जो बातें बताईं- कालेज,मासाब, लड़के, वहाँ का खाना, नहाना-धोना, जंगल जाना, खेलनासबके बारे में। चकित होकर सुनती रहती। मैंने उसे दीवार पर टँगे ददा और भौजी के फोटो के बारे में बताया।बताया कि उस फोटो में ददा और भौजी हू--हू वैसे ही लगते हैं जैसे हैं। जमीन में बिछाई चद्दर भी बिलकुल चद्दरजैसी लगती है।
ईजा उसफोटूके बारे में सोचती रही। फिर बोली, ‘‘कभी मुझे भी दिखाना तो कैसा है वह फोटू।’’
पिताजी अलग खुश। इधर-उधर कहते रहते, ‘‘अब कालेज में पढ़ रहा है देबी। अंग्रेजी भी पढ़ रहा है बल। मेहनतकरेगा तो पढ़ ही लेगा।’’
ईजा-बाज्यू से मिल कर रमुदा के साथ ही वापस कालेज लौट आया। फिर पढ़ाई शुरू हो गई।
कुछ महीने बाद बाज्यू आए। ईजा को ठंडा बहुत सताने लगा था। उन्होंने बताया, ‘‘तेरी ईजा तुझे बहुत याद करतीहै। उसने कहा है, देबी खूब पढ़ना।’’
बग्वाली (दीपावली) के बाद बाज्यू बीमार ईजा को लेकर ठुल ददा, भौजी और गोरु-बाछों के साथ ककोड़ को चलेगए। बीच-बीच में खबर आती, ईजा को कोई आराम नहीं मिल रहा है। बीमारी ठीक नहीं हो रही है। ईजा की बीमारीकी बात मेरे सामने बहुत कम की जाती थी। ईजा शायद खुद कह देती थी कि देबी के सामने मेरी बात मत करना, नहीं तो वह रोएगा, पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा। जो कुछ कान में पड़ जाता, उससेपता लगता था कि ईजा की तबियत ठीक नहीं चल रही है। उसे उपसाँसी (श्वास) भी थी।
उस दिन छुट्टी थी। शायद इतवार था। मैं जंगल-वंगल जाकर, नहा-धो कर घर लौटा तो देख कर हैरान रह गया- ददा ने सुबह-सुबह जाने क्यों अंगूर की बेल काट कर फेंक दी। उसे तो वह भी बहुत अच्छा मानते थे। वहाँ अबखाली दीवार थी, टीन की खाली छत थी। मैं अक्सर टीन की छत पर चढ़ जाता था। उस दिन भी शायद कोई कपड़ासुखाने के लिए छत में गया। शायद पैर रपटा और नीचे गिरते-गिरते बचा। भड़-भड़ सुन कर ददा और भौजी नेआकर देखा। मैं थरथराते हुए नीचे उतरा। ददा ने कहा, ‘‘ऐसी जगह क्यों जाते हो ? अभी गिर जाते तो ?’’ गिरने सेबाल-बाल बच जाने से उनकी साँस में साँस आई।
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