Wednesday, August 18, 2010

बर्बाद हो रही खेती

farming‘भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर आश्रित है,’’ यह वाक्य हम कक्षा दो से पढ़ते आये हैं। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद भी जनता के खेवनहारों ने कृषि की इस अमूल्य निधि की तरफ आँख उठाकर देखने की जरूरत नहीं समझी। जिस प्रकार पहाड़ों की सोना उगलने वाली धरती को उपेक्षित कर बंजर में तब्दील किया जा रहा है, उससे तो लगता है कि एक दिन सिर्फ चट्टानें रह जाने के कारण पहाड़ों को ‘हाड़’ ही कहा जाने लगेगा।

मुनस्यारी में तीस-पैंतीस साल पहले तक 80 प्रतिशत लोग कृषि-बागवानी से जीवन निर्वाह करते थे। आलू की खेती सर्वाधिक रूप बर्नियागाँव में होती थी। भले ही आज भी यहाँ पर उत्पादन में कुछ कमी अवश्य आयी है, मगर यह गाँव मूलतः आलू के कारण ही जाना जाता है। ‘बर्नियागाँव का आलू और बिहार का लालू’ कह कर लोग हँसी-ठिठोली भी करते हैं। इसी तरह हरी सब्जियों के लिए हरकोट गाँव की अपनी ख्याति है। हरकोट की चोती (मूली) का जो स्वाद और आकार होता है, उसका मुकाबला शायद ही कहीं हो सके। राजमा की नकदी फसल का उत्पादन क्वीरीजिमिया, प्यांगती, बोना, तोमिक, गोरीपार, ढीलम आदि दूरस्थ गाँवों में बहुतायत से होता है, लेकिन उचित मूल्य न मिल पाने से काश्तकारों में नाराजी है, जिससे इसके उत्पादन में भी गिरावट आयी है।

कुछ ही जगहों पर, और पुराने ख्यालातों के लोग ही जमीनी मुहब्बत के कारण कृषि-बागवानी में लगाव लगाये हुए हैं। उनके बाद शायद ये बगीचे भी सूख जायें। करोड़ो की जमीन-जायदाद की बात होती तो दसों वारिस खड़े हो जाते, लेकिन इन सुन्दर बाग-उपवनों के लिए उत्तराधिकारी ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। अब शायद हर किसी को तत्काल फल चाहिए, अखरोट की तरह 18 वर्ष के इन्तजार का धैर्य किसी को नहीं। उद्यमी राजेन्द्र सिंह कोरंगा बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब मुनस्यारी के शास्त्री चौक में लोग 10-12 किमी. दूर बसन्तकोट, बीसा, दुम्मर, कव्वाधार, सेविला से पैदल चलकर केला, नारंगी, माल्टा, आड़ू, खुबानी, पुलम, नाशपाती, गन्ना आदि डोके में बोक कर दिन भर हर मौसम में यहाँ पर बिक्री कर अपने व अपने परिवार के लिए चाय, बीड़ी-तम्बाकू का खर्चा निकाल लेते थे। मदकोट के एक व्यक्ति ने तो नारंगी से इतना कमाया कि उसी के बलबूते एक मैक्स गाड़ी खरीद ली है और अब रोजाना पिथौरागढ़ से सवारियों को ढोने का अच्छा व्यवसाय चला रहा है, भले ही अब वह नारंगी बेचना भूल गया हो।

कृषि उद्यमियों की शिकायत है कि शासन और प्रशासन हमारी तरफ भूल कर भी नहीं देखते। न वन विभाग और न ही उद्यान विभाग उन्हें कोई प्रोत्साहन देते हैं। उद्यान विभाग से उन्हें कभी भी एक उन्नत प्रजाति का पौधा तक नहीं मिला। वन विभाग आज तक एक बन्दर को भगा पाने में भी सफल नही हो पाया। फसल लहलहाने से पूर्व से पकने तक इन वानरों का आतंक फैला रहता है। कभी-कभार वे छोटे बच्चों को चोट भी पहुँचा देते हैं। मुनस्यारी में मक्के की खेती में भी काफी गिरावट आयी है। भूमि की सर्वाधिक उर्वरा शाक्ति बढ़ाने वाली यह फसल आज सिर्फ छोटे से जमीन में सिमट कर रह गयी है। दूरस्थ गाँवों दूनामानी, आलम, दारमा, उच्छैती, वल्थी, जोशा में ही इसे आटे के रूप में बनाये जाने के लिए उत्पादन किया जा रहा है। जंगल जाकर निंगाल, जिससे डोका, तेता, डाला, राब्यों, म्वाल आदि का निर्माण किया जाता था, लाना भी आज नगण्य रह गया है। उद्यमी काश्तकार धरमु राम, जो पिछले 35 वर्षों से यह कार्य कर रहे हैं, बताते हैं कि कभी सरकार ने उन्हंे एक पैसे की सहायता तक नहीं दी। इसके बावजूद अपने पाँच बच्चों में से एक को वे यह शिल्पकला सिखाने की दिली तमन्ना रखते हैं। उन्हें आशा है कि उनका जगदीश उनकी इस पूँजी को अवश्य बचाये रखेगा। राजकीय इण्टर कालेज मुनस्यारी में दो दशक पूर्व मौन पालन की कक्षा चलती थी लेकिन कृषि मास्साब जितेन्द्र सिसौदिया के तबादले के बाद से यह कक्षा समाप्त हो गयी है। कुल मिलाकर राज्य गठन के बाद कृषि-बागवानी में गिरावट आयी है और राज्य सरकार इसके लिये पूरी तरह दोषी है।

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