Sunday, August 15, 2010

पौड़ी: आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिये सक्षम हैं कुमाँऊनी, गढ़वाली भाषा

साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित पौड़ी के संस्कृति भवन प्रेक्षागृह में सम्पन्न दो दिवसीय गढ़वाली भाषा सम्मेलन में यह निष्कर्ष उभर कर आया कि इन्डो-आर्यन के समय से चली आ रही गढ़वाली आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिये एकदम सक्षम भाषा है। यह बात साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष सतेन्द्रसिंह नूर ने अपने अध्यक्षीय उदबोधन में भी कही। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सांसद सतपाल महाराज ने कहा कि गढ़वाली को राजभाषा बनाने के लिये वे हरसंभव प्रयास करेंगे। इसके लिये आम सहमति बनने के लिये भी प्रयास किया जायेगा। विशिष्ट अतिथि भारतीय कविता विश्वकोश के मुख्य संपादक कपिल कपूर ने कहा कि यदि भाषा जीवित है तो संस्कृति व समाज जीवंत रहता है। गढ़वाली व कुमाउनी भाषायें बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से भारत में 16वें व 17वें स्थान पर हैं, इसलिये ऐसी भाषाओं को 8वीं अनुसूची में होना चाहिये।

बीज भाषण में सुप्रसिद्ध गीतकार एवं गायक (नरेन्द्र सिंह नेगी )ने गढ़वाली बोली-भाषा के इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि नई पीढ़ी अब इससे दूर हो रही है। यह गढ़वाली समाज में स्वाभाविक रूप से ग्राह्य हो इसके लिये काम करना होगा। अपने स्वागत भाषण में साहित्य अकादमी के सचिव अग्रहार कृष्णमूर्ति ने कहा कि भारत में हजारों बोलियाँ व भाषायें हैं और हरेक आदमी दो से तीन भाषायें जानता है। बड़े लेखक भी कई-कई भाषाओं में लिखते रहे हैं। साहित्य अकादमी द्वारा पिछले 50 सालों में 22 भाषाओं में 4,000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं। इतनी भाषाओं में एक साथ प्रकाशन करने वाला दुनिया का यह अकेला संस्थान है। विभागाध्यक्ष लोककला एवं परफार्मिंग आर्ट्स केन्द्र के अध्यक्ष डॉ. डी.आर. पुरोहित ने आगन्तुकों का आभार प्रकट किया जो इसके उन्नयन में लगे हैं। कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव ने किया।

पहले सत्र के अध्यक्ष, भाषा विज्ञानी डॉ. अचलानन्द जखमोला ने गढ़वाल सभा के तत्वावधान में तीन चौथाई तक बन चुके गढ़वाली शब्दकोश की प्रगति के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि गढ़वाली में अनन्त शब्द हैं, अनेक पौराणिक शब्द हैं और अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें दूसरी भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमारा प्रयास है कि गढ़वाली की सभी शैलियों को इसमें प्रतिनिधित्व मिले। उन्होंने कहा कि कोष एक सन्दर्भ ग्रन्थ जैसा ही है। जर्मनी के हेडलबर्ग विश्वविद्यालय में गढ़वाली भाषा के शब्दों का वैज्ञानिकता पर अध्ययन कर रहे इन्डोलॉजी विभाग के आर.पी. भटट ने गढ़वाली की वर्णमाला से लेकर वाक्य विन्यास पर चर्चा करते हुए बताया कि आज हर 10 दिन में दुनिया में एक भाषा मर रही है और इस प्रकार 100 साल में 6 हजार भाषायें समाप्त हो जायेंगी। डॉ. डी. आर. पुरोहित ने गढ़वाली भाषा के चैनल की आवश्यकता बताई।

दूसरे सत्र में गढ़वाली लेखक सुदामा प्रसाद प्रेमी ने गढ़वाली लोकोक्तियों पर चर्चा की और इस विषय पर लम्बे समय से काम कर रहे शिक्षाधिकारी पुष्कर सिंह कण्डारी ने अपने द्वारा संग्रहीत की गई गढ़वाली की अनगिनत लोकोक्तियों का जिक्र किया। वीरेन्द्र पँवार ने गढ़वाली को जीवित रखने के लिये इसे रोजगार से जोड़ने की जरूरत बतलाई। तीसरे सत्र में शिवराजसिंह ‘निसंग’ ने गढ़वाली शब्दों की व्युत्पत्ति पर चर्चा करते हुए कहा कि प्राकृत से ही गढ़वाली निकली है। डा. आशा रावत ने गढ़वाली साहित्य और साहित्यकारों के रचनाकर्म पर प्रकाश डाला। पुराविद् डॉ. यशवन्तसिंह कटोच ने कहा कि गढ़वाली भाषा सुरक्षित रह सके, इसके लिये इसका अविरल प्रयोग जरूरी है। नरेन्द्र कठैत ने बताया कि किस प्रकार से राजाओं के शासनादेशों और दानपत्रों में गढ़वाली का उपयोग होता था।

दूसरे दिवस के चार सत्रों के पहले सत्र में डॉ. नन्दकिशोर ढौंढ़ियाल ने जागर व मांगल गीतों, पँवाड़ों के मूल रूप में सरंक्षण की आवश्यकता जताई। प्रेमलाल भट्ट ने कहा कि कत्यूरी काल में संस्कृत के शिलालेख व दानपत्र इस मान्यता को पुष्ट करते हैं कि उस समय लोकभाषा गढ़वाली के साथ दूसरी भाषा रही होगी। इस सत्र के अध्यक्षीय भाषण में सुप्रसिद्ध लेखक भगवती प्रसाद नौटियाल ने गढ़वाली में बन रहे शब्दकोश के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि गढ़वाली में हजारों शब्द ऐसे हैं जिनका ठीक-ठीक अंग्रेजी अर्थ निकालना जटिल काम है।

पाँचवे सत्र में बाल पत्रकारिता पर काम कर रहे भुवनेश्वरी महिला आश्रम के गजेन्द्र नौटियाल ने गढ़वाली नाटकों व नाटक करने वाली संस्थाओं का उल्लेख किया। गीतकार एवं गायक चन्द्रसिंह राही ने अपने प्रभावकारी सम्बोधन में कहा कि जब लोक बचेगा तो विधायें भी बचेंगी। फिलहाल धुनों को संरक्षित करने का प्रमुख तरीका उनका आडियो व वीडियो बनाना ही है। लोकगीत तभी हैं जब लोक धुन है। उन्होंने वादकी समुदाय को गढ़वाल का सर्वप्रथम रचनाकार बताया, जिन्होंने शिल्पकला से लेकर गायन तक की बुनियाद रखी। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान व उत्तराखण्ड हिन्दी अकादमी की कार्यकारी अधिकारी व प्रभारी निदेशक सविता मोहन ने कहा – इन संस्थाओं के विधिवत काम करने के बाद से शोध काम को गति मिलेगी। उन्होंने कई योजनाओं की चर्चा की जो यह संस्थान करेंगे। उनका पहला काम भाषाई सर्वेक्षण होगा जो ग्रियर्सन ने सदियों पहले किया था।

छठे सत्र में अध्यक्षीय भाषण में अखिल गढ़वाल सभा के सचिव रोशन धस्माना ने कहा कि राजनीतिक मोर्चे पर इच्छाशक्ति की कमी के कारण गढ़वाली पिछड़ रही है। संपादक ‘खबर सार’ बिमल नेगी ने भी सरकार की उदासीनता का जिक्र किया। त्रिभुवन उनियाल ने समाचार पत्रों के गढ़वाली भाषा की स्थिति एवं गणेश खुगशाल ‘गणी’ ने लोकसंस्कृति और गढ़वाली विषय पर व्याख्यान दिये।

सप्तम सत्र में अध्यक्षीय व्याख्यान देते हुये इतिहासकार रणवीरसिंह चौहान ने गढ़वाली लोकगाथाओं के बारे में अपनी बात रखते हुए कहा कि जागर-पँवाड़े हमारी धरोहर हैं, जो श्रुत रूप से सदियों से चले आये थे किन्तु अब समाप्ति की कगार पर हैं। गढ़वाली कवि मदनमोहन डुकलान ने गढ़वाली की काव्य भाषा पर अपनी बात रखी। रामकुमार कोटनाला ने विभिन्न कोशों की जरूरत व आर.एस. असवाल ने गढ़वाली की प्रशाखा रवाँल्टी पर अपने विचार रखे।

समारोह में कवि सम्मेलन व गायन प्रस्तुतियाँ भी र्हुइं। कवि गोष्ठी में देवेश जोशी, ललित केशवान, नागेन्द्र जगूड़ी ‘नीलाम्बरम’, दर्शन सिंह बिष्ट, गणेश खुगशाल ‘गणी’, मुरली दीवान, ओमप्रकाश सेमवाल, जगदम्बा चमोला व अद्वैत बहुगण ने कवितायें-क्षणिकायें सुनायीं। लोककला एवं परफार्मिंग आर्टस द्वारा एक गढ़वाली नाटक का मंचन किया गया। दूसरे दिन गायिका बसन्ती बिष्ट की जागर, गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोककला एवं निष्पादन केन्द्र की लता तिवारी एवं संजय पाण्डे ने नये सन्दर्भ में चैती गीतों व कुमाउंनी नौटंकी शैली की प्रस्तुतियों और वादकी बचनदेई व रामचरण की प्रस्तुति ने दर्शकों को झकझोर कर रख दिया। अन्त में नरेन्द्रसिंह नेगी ने जागर शैली से लेकर अपने चुनिन्दा गीतों को प्रस्तुत किया। इस अवसर पर बी. मोहन नेगी के द्वारा लगाई गढ़वाली साहित्य की 300 दुर्लभ पुस्तकों की प्रदर्शनी, कविता पोस्टर प्रदर्शनी के अलावा गढ़वाली वाद्य यन्त्रों, गढ़वाली गीतों, फिल्मों, लोक संगीत की कैसेट, सी.डी व डी.वी.डी. की प्रदर्शनी आकर्षण का केन्द्र बनी रही।

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