Monday, June 28, 2010

खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते

खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते



खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते थे और हर प्राकृतिक चीज में उन्हें देवता का निवास प्रतीत होता था...आज उससे आगे]

आज की तरह घर-घर रावण, घर-घर लंका वाला युग नहीं था। लोग अपनी जरूरत भर की चीजें ही प्रकृति से लेते थे। बेच डालो या समेट लो वाली संस्कृति का प्रकोप भी नहीं था। अंधी कमाई भी नहीं थी। लोग पितरों की थात को महत्व देते थे। उसे संवर्द्धित करना अपना दायित्व समझते थे। आज की तरह नहीं कि लोग, सारे गाँव के हितों की उपेक्षा कर, अपने पितरों की थात को, सार्वजनिक जीवन के लिए अपरिहार्य जल, जंगल और जमीन को बेचने में कोई कसर न छोड़ रहे हो। आज तो घर को घर के चिराग ही आग लगा रहे हैं।

मैं देखता था कि वनाधिकारी और उनके अतिथि आते। आखेट करते। निशाने साधते। धराशायी होते कांकड़ और घुरड़, जैसे मरते हुए जूलियस सीजर की तरह ’अरे ब्रूटस तुम भी’ कहते हुए अंतिम साँस लेते। एक बार तो एक वनरक्षक ने अपनी निशानेबाजी का कमाल दिखाने के लिए एक ही गोली से सौ मीटर दूर परस्पर सिर भिड़ाए दो काँकड़ों को मार गिराया था। वनाधिकारी महोदय ने इस निशानेबाजी के लिए उसे पुरस्कृत किया था। उनके अतिथियों की वाह-वाह ने उसका सीना चौड़ा कर दिया था। ऐसा लग रहा था कि यदि उसे एक बार यह कमाल और दिखाने के लिए कहा जाता तो वह दस-पाँच घुरड़ों को और मार लाता। सच पूछें तो इस वन में मनुष्य के अलावा कोई भी प्राणी सुरक्षित नहीं था।

कितनी देर कर दी हम लोगों ने वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनाने में। अभी भी वनों के भीतर हमारी घुसपैठ कहाँ कम हुई है। हम वनों में घुस रहे हैं और वनचर हमारे घरों में। जब अपने प्रदेश में एक ही दिन में गाँव घरों से तीन-तीन बाघ पकड़े जा रहे हों तो इस चरम विसंगति को समझा जा सकता है। फिर भी इस अधिनियम से कुछ तो थमा है।

एड़द्यो की तलहटी में कोसी बहती थी। यह नदी कौसानी से निकल कर शाहजहाँपुर के पास रामगंगा में मिल जाती है। यह नदी मेरे गाँव से होकर भी जाती है। बचपन में अपने छज्जे में बैठ कर मैं इसे निहारता रहता था। शायद पहली कविता भी मैंने इसी नदी पर लिखी थी। तब इसमें बहुत पानी था। एक बार अपने दोस्त के साथ इस नदी को पार करने का प्रयास करते हुए मैं डूबने से बाल-बाल बचा था। सुना जाता है कि अपने खैरना प्रवास में सोमवारी बाबा इस नदी के जल में आकंठ निमग्न हो जाते और सारी मछलियाँ उनके हाथों का प्रसाद पाने के लिए उन्हें घेर लेतीं। बाबा एक-एक कर उन्हें रामनामांकित आटे की गोलियाँ खिलाते रहते। आज यह नदी प्यासी है। तब ग्रीष्म में भी इस नदी में इतना पानी होता था कि वन विभाग के सारे दार (प्रकाष्ठ) को अपने प्रवाह पथ के किसी भी भाग से रामनगर पहुँचाने का दारोमदार इसी नदी पर था। बीच-बीच में ठेकदार के कर्मचारी पत्थरों पर ठहर जाने वाले प्रकाष्ठ को धारा में धकेलते रहते थे। यह काम केवल इसी नदी में नहीं, अपितु यमुना, भागीरथी, पश्चिमी रामगंगा, सरयू, पूर्वी रामगंगा और काली सभी नदियों में होता था। इनमें पश्चिमी रामगंगा और कोसी तो ऐसी नदियाँ थीं, जिनका मूल हिमालय के गलों में न होकर मध्यवर्ती पहाड़ों में था। आज इनमें इतनी सामर्थ्य नहीं रह गयी है कि ये एक सामान्य से लट्ठे को भी अपने प्रवाह में गतिमय कर सकें। बाँज के उजड़ते जाने से ये नदियाँ भी जैसे बाँझ होती गयी हैं।

एड़द्यो मेरे लिए बचपन में देखा हुआ एक स्वप्न है। यहीं मैंने ’लोक’ को समझा था। वह भी समीपस्थ गैलेख और बगड्वाल गाँव के निवासियों से। इन गाँवों में हिन्दू भी रहते थे, मुसलमान भी। पर जब तक नाम न पुकारा जाय यह पता ही नहीं चलता था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। इन लोगों का कभी इस ओर ध्यान ही नहीं गया था कि जिसे वे भगवान या अल्लाह कहते हैं उसके लिए भी कोई घर होना चाहिए। परकोटा होना चाहिए, हथियारबन्द चौकीदार होने चाहिए। थान अवश्य थे। पर उन थानों में शिव, विष्णु, दुर्गा और गणेश जैसे महादेवताओं की अपेक्षा उनके साँझे इष्ट देवताओं का निवास था। ऐसे देवता जिन तक वे सहजता से पहुँच कर अपने दुःख-सुख बाँट सकते थे। ग्वेल और गंगनाथ थे तो पीर और सिद्ध बाबा भी।

ऐड़द्यो मैं मैंने जनसामान्य के देवत्व को देखा है। मुझे पीलिया ने घेर लिया था। दो मील दूर बगड्वाल गाँव की एक बूढ़ी मुस्लिम महिला इसका स्थानीय उपचार जानती थी। वह रोज दो मील दूर अपने गाँव से आती। मेरे गले में कंटकारि के पीले फलों की ताजी माला पहनाती। काँसे के कटोरे में सरसों के तेल में कुछ पानी की बूँदें डाल कर उसे मेरे सिर पर रखती और देर तक कुछ बुदबुदाती हुई एक पत्ते से तेल को घुमाती रहती। जब तेल गाढ़ा और पीला हो जाता, उसे मुझे दिखाती और कहती पीलिया, बस थोड़ा सा ही रह गया है। संभवतः यह तो मात्र मनौवैज्ञानिक उपाय था। असली उपचार तो आहार में परिवर्तन से हो रहा था। चिकनी चीजें बन्द। भट का जौला और मूली और उसके पत्तों का भोजन। एक माह में पूरी तरह ठीक हो गया। वृद्धा एक माह तक अपना सारा काम-धाम छोड़ कर लगातार आती रही थी, लेकिन जब उसे पारिश्रमिक देने का प्रयास किया तो उसने नहीं लिया। कहा, जो अल्लाह का है उसकी कीमत मैं कैसे ले सकती हूँ।

ऐड़द्यो मेरे मन में एक पीड़ा के रूप में भी विद्यमान है। यहाँ मेरे परिवार ने अपने परम मित्र को खोया है। एक ऐसा मित्र जो वर्षों हमारे परिवार का अभिन्न अंग बना रहा। जिसने हमारे काम के लिए न दिन देखा न रात। जो मेरे लिए अपने बड़े भाई की तरह था तो पिता जी के लिए सर्वस्व। यह बिछुड़न दैहिक नहीं थी, मानसिक थी। यहीं आकर उसे बोध हुआ कि वह ठाकुर है और हम ब्राह्मण। ’कुमाऊँ राजपूत’ के विषवमन से रुग्ण हमारे पड़ोसी पतरौलों, केसरसिंह और किशनसिंह ने उसे इतना जातिवाद पिला दिया कि उसकी नजर ही बदल गयी। बीस वर्ष तक मेरे पिता जी का अभिन्न सहचर, हमारे लिए कुछ भी करने के लिए तैयार, दुर्लभ पारिवारिक मित्र सिराड़ का नारायणसिंह इस ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के जाल में उलझ कर रह गया।

आज भी विद्वेष के इस जहर को फैलाने में हमारे नेता और बुद्धिजीवी नहीं चूक रहे हैं। सारी दुनिया घूम चुकने के बाद भी हमारे एक साहित्यकार मित्र को पूर्व मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी में मात्र उनका ठाकुर होना ही दिखाई देता है।

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