Monday, June 7, 2010

पहाड़ की खेती बचाने को चिंतन


पहाड़ की खेती बचाने को चिंतन



‘बीज बचाओ आंदोलन’ द्वारा 29-30अप्रैल 2010 को खाड़ी एवं नागणी में आयोजित गोष्ठी में समाजसेवियों, किसानों वैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों ने दो दिन के विचार विमर्श के बाद अनेक प्रस्ताव पास किए। यह माँग की गयी कि उत्तराखण्ड में जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिये अतिरिक्त सब्सिडी दी जाये। यहाँ रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा है। खास कर नेपाल से आये लोग सबसे अधिक जहरीली सब्जी पैदा कर रहे हैं। रासायनिक उपकरणों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने और जैविक खेती को बढ़ावा की माँग की गयी। बीटी बैंगन पर प्रतिबन्ध लगाना अच्छी शुरूआत है। अब केरल की तरह उत्तराखण्ड को जी.एम. मुक्त राज्य बनाने की घोषणा भी करनी चाहिए। हिमालय की विविधता युक्त जैव विविधता को बचाने के लिए जी.एम. बीजों का विरोध जरूरी है। पहाड़ों में खेती की रीढ़, यहाँ की महिलाओं को पुरुष किसान के बराबर के अधिकार मिलने चाहिए।

पहाड़ों में फसलों की उपज गिरने का एक मुख्य कारण मिट्टी का क्षरण है। सीढ़ीदार खेतों से उपजाऊ मिट्टी बह-बह कर जा रही है। भूमि एवं उपजाऊ मिट्टी के संरक्षण की अग्रगामी योजना बननी चाहिए। यह कार्य मनरेगा में किया जाना चाहिए। कृषि योग्य भूमि दिन-प्रतिदिन कम हो रही है और सरकार इसे और घटाने में लगी हुई है। नदी घाटियों की उपजाऊ भूमि को बाँधों में डुबाया जा रहा है और बची-खुची अच्छी जमीन को कथित औद्योगिक विकास के लिए कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। खेती की जमीन का दुरुपयोग किसी भी दशा में गैर कृषि कार्य के लिए नहीं होना चाहिए। सूखा या अन्य प्राकृतिक प्रकोपों के लिए फसलों की क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है, किंतु इसकी दरें आज भी वहीं है जो अंग्रेजों ने या रियासत ने तय किया था। जबकि इस दौरान कर्मचारियों का वेतन सौ गुणा से भी अधिक बढ़ा। महंगायी आसमान छू रही है। किसानों की प्रतिकर की दरें आज की बाजार की महंगाई के हिसाब से मिलनी चाहिए।

टिहरी बाँध बनने के बाद प्रशासन ने घाटी में विचरण करने वाले सुअर व बंदरों को विस्थापित करने के बजाय हमारे खेतों में खदेड़ दिया। आज जंगली जानवर किसानों की फसलों को बड़ी मात्रा में क्षति पहुंचा रहे हैं। खेती को क्षति पहुंचाने वाले सुअरों को मारने, बंदरों को पकड़कर राष्ट्रीय पार्कों में सरकारी खर्च पर छोड़ने एवं इनकी संख्या कम करने के लिये नसबंदी का बृहद अभियान चलाने के अलावा फसलों की क्षतिपूर्ति आज के बाजार भाव के हिसाब से करने की माँग की गयी। यह चिंता प्रकट की गयी कि जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा की योजना न होने के कारण किसानों द्वारा खेती छोड़ने की शुरूआत हो गयी है।

खाद्य सम्प्रभुता एवं जलवायु परिवर्तन के दौर में एकल (मोनोकल्चर) फसलों को खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण के लिये खतरा मानते हुए बारहनाजा जैसी मिश्रित फसल पद्धति को आदर्श माना गया। विविधतायुक्त मिश्रित खेती और मंडुआ, झंगोरा, कौणी एवं ज्वार जैसे पोषण के अनाज भविष्य की असली खेती हैं, जो भुखमरी एवं कुपोषण से बचाने में सक्षम हैं। अनाजों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी शामिल करने की माँग किसानों ने की। धान की पारंपरिक प्रजातियों के संरक्षण करने पर जोर दिया गया। अनुभवी किसानों ने बताया कि हमारे पहाड़ों में खरीफ की फसलों को ‘कखड़ फाल्या’ कहते थे। यानी फसल पौंधों की दूरी काखड़ की टाप के बराबर रखी जाती थी। पौंधों की दूरी बढ़ाने और कम सिंचाई से उपज स्वतः दुगनी हो जाती है।

पहाड़ों के लिये छोटी नदियाँ वरदायिनी हैं। इनसे यहाँ पारंपरिक पद्धति ‘कुलवाली’ से सिंचाई होती है। किंतु अब छोटी नदियाँ सूखने की कगार पर हैं। इनके संरक्षण के लिये वनीकरण व चाल-खाल एवं ‘रौ’ पद्धति को अपनाते हुए चैकडैम व नदी के तटबंध बनाये जाने चाहिये। पहाड़ों में पशुपालन के बिना खेती की कल्पना नहीं की जा सकती। इसे खत्म होने से बचाने के लिये लुप्त हो रही देसी नस्लों को बचाया जाना चाहिये। ‘गौवंश संरक्षण अधिनियम’ बनाने वाली सरकार स्वयं ही देसी गाय की नस्लों को खत्म कर रही है। विदेशी नस्ल को बढ़ाने के लिये कृत्रिम गर्भाधान कराना अनैतिक है। प्रत्येक गाँव में नैसर्गिक गर्भाधान केंद्र खोले जाने चाहिये। पशुधन को बढ़ाने से डेरी उद्योग भी पनपेगा और जैविक खेती भी मजबूत होगी। गौवंश के सरंक्षण का कानून बनाने वाली सरकार द्वारा बैलों के स्थान पर हल जोतने के लिये ‘पावर ट्रिलर’ को बढ़ावा देकर कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं। जबकि आज बदलते जलवायु और मौसम के दौर में गौवंश और बैल को ऊर्जा के बड़े स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिये। साथ ही यह जैविक खाद एवं कीटनाशक का विकेन्द्रित कारखाना भी है।

युवा पीढ़ी की दिलचस्पी खेती की ओर लगाने के लिये शिक्षा पद्धति मे परिवर्तन लान,जैविक सब्जी उत्पादन, बागवानी, फल प्रसस्ंकरण डेरी उद्योग, छोटे-छोटे लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की अनेक योजनायें बनाने पर जोर दिया गया। विनाशकारी विकास रोकने के लिये एक समग्र हिमालय नीति बनाने पर जोर दिया गया। ‘बीज बचाओ आंदोलन’ ने खेती के संकट के संदर्भ में नारा दिया है- ‘‘खेती पर किसकी मार? जंगली जानवर, मौसम और सरकार’’। सम्मेलन के प्रस्ताव उत्तराखंड सरकार के कृषि मंत्री के सलाहकार को सौंपे गये, जो सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर सम्मेलन में आये थे।


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