Friday, March 19, 2010

भगवान् नृसिंह,

परम पराक्रमी व पापशमनकर्ता भगवान् नृसिंह, जे हो नरसिंघ देवता की




भारतीय परंपराओं एवं पौराणिक श्रुति-स्मृतियों के अनुसार भगवान विष्णु ने समय-समय पर अद्भुत अवतार लेकर पापों का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना की। देश के अलग-अलग राज्यों के क्षेत्रों में अपने-अपने आराध्य देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन करने की मान्यताएँ प्राचीनकाल से चली आ रही हैं।

नृसिंह पुराण के एक श्लोक के अनुसार, स्वाति नक्षत्रसंयोगे शनिवारे महद्वतम्। सिद्धियोगस्य संयोगे वणिजेकरणे तथा। पुंसां सौभाग्ययोगेन लभ्यते दैवयोगत। सर्वैरेतैस्तु संयुक्तं हत्याकोटिविनाशनम्।।

अर्थात् वैशाख शुक्ल प्रदोष व्यापिनी चतुर्दशी को नृसिंह जयन्ती का व्रत किया जाता है। दैवयोग अथवा सौभाग्यवश किसी दिन पूर्वविधा में शनि, स्वाति, सिद्धि और वणिज का संयोग हो तो उसी दिन व्रत करना चाहिए। व्रत को सब वर्ण के लोग कर सकते हैं। मध्याह्न के समय नदी या जल से वैदिक एवं नृसिंह गायत्री मंत्र का जाप करते हुए तिल, गोमय, मृत्तिका और आंवले सहित स्नान करने के पश्चात् ताम्र-कलश में रत्नादि डालकर, अष्टकमल दल पर भगवान नृसिंह की प्रतिमा को पंचामृतादि से स्नानादि `पुरुष-सूक्तम्' से करवाना चाहिए।

इस व्रत में क्रोध, लोभ, मोह एवं मिथ्याभाषण, पापाचार आदि का सर्वथा त्याग करना चाहिए। सायंकाल पुन नृसिंह भगवान का षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। कहीं-कहीं नृसिंह को रोठ (गुड़-आटे) चढ़ाने की भी परंपरा है। प्रतिवर्ष इस व्रत को करते रहने से भगवान नृसिंह व्रती की एवं उसके परिवार की सभी प्रकार से (तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेतादि बाधाओं से) रक्षा करके यथेच्छ धन-धान्य देते हैं।

विष्णु अवतार नृसिंह शक्ति एवं पराक्रम के प्रतीक माने जाते हैं। प्राचीन काल में कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष को विष्णु भगवान ने वराह अवतार लेकर मारा था, क्योंकि वह पृथ्वी को पाताल लोक (रसातल) में ले गया था। इसी कारण भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मादि देवताओं की कई वर्ष तक तपस्या करके ऐसा वरदान मांगा कि वह न तो रात में मरे, न दिन में और न ही स्वर्ग, पाताल, हथियार, मनुष्य, देव, किन्नर, गण, जानवर से मरे। न घर के भीतर या बाहर मरे।

ऐसा वरदान पाकर हिरण्यकशिपु अत्याचार करने लगा। जब पाप के कारण चारों ओर त्राहि-त्राहि मची तो हिरण्यकशिपु की पत्नी एवं जंभासुर की पुत्री कयादु के गर्भ से छ पुत्र हुए, जिनमें एक प्रह्लाद भी थे। वह भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। पिता के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर प्रह्लाद भगवान से प्रार्थना करते तो हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को मारने की तरकीबें अपनाता, किन्तु विफल ही होता।

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